
नृपेन्द्र अभिषेक ‘नृप’
बिहार की राजनीतिक भूमि वर्षों से जातीय समीकरणों, पारिवारिक विरासतों और सत्ता के स्थायी खिलाड़ियों के इर्द-गिर्द घूमती रही है। ऐसे परिदृश्य में यदि कोई व्यक्ति ‘विकास’ और ‘नवाचार’ का मंत्र लेकर परिवर्तन की उम्मीदों को संजोता है, तो यह कल्पना सहज ही आकर्षित करती है। प्रशांत किशोर, जिनकी रणनीतिक बुद्धिमत्ता और चुनावी अभियानों में सफलता की कहानियाँ अब किंवदंतियों का रूप ले चुकी हैं, उन्होंने जब जनसुराज की नींव रखी, तो लगा मानो बिहार की राजनीति में एक नई सुबह का आगाज़ हुआ है। परंतु समय की गति और जमीनी हकीकतें कुछ और ही बयां कर रही हैं। चार विधानसभा के उपचुनावों में तीन पर करारी हार और सर्वेक्षणों में पार्टी का प्रदर्शन निराशाजनक रहना, यह संकेत दे रहा है कि जनसुराज अब भी मतदाताओं को अपने पक्ष में लामबंद करने में असफल रही है।
● सपनों का सिंहासन और यथार्थ की ज़मीन
प्रशांत किशोर ने जब बिहार की धरती पर ‘जनसुराज’ का बीज बोया, तो उसकी परछाईं एक जनांदोलन जैसी प्रतीत हुई। वे गाँव-गाँव, द्वार-द्वार पहुंचे, लोगों की पीड़ा सुनी, सिस्टम के विरुद्ध आवाज़ उठाई और एक वैकल्पिक राजनीति का स्वरूप खड़ा करने का वादा किया। परंतु जनसुराज का यह आंदोलन अब तक विचारों की आँधी बन पाने में विफल रहा है। यह एक दुर्भाग्य है कि जिस पार्टी को नवाचार की राजनीति का प्रतीक बनना था, वह आज न तो जनाकांक्षाओं की नब्ज़ थाम पाई, न ही जमीनी संगठन को मज़बूती दे सकी।
● नेतृत्व चयन: पुराने पत्तों से नई बाज़ी कैसे?
जनसुराज की एक प्रमुख विफलता यह रही कि उसने नई राजनीति की बात करते हुए पुराने और अस्वीकृत नेताओं को अपने संगठन में जगह दी। जिन चेहरों को जनता पहले ही नकार चुकी थी, वही जनसुराज की रीढ़ बन बैठे। इससे न केवल पार्टी की छवि पर नकारात्मक असर पड़ा, बल्कि जो युवा, ईमानदार और बदलाव के इच्छुक लोग थे, वे स्वयं को हाशिए पर महसूस करने लगे। एक वैकल्पिक राजनीति का आधार उन्हीं लोगों पर टिका हो जिनके अतीत पर संदेह हो, तो जनता भरोसा क्यों करे? इस संदर्भ में पार्टी को चाहिए कि वह ‘गैर-राजनीतिक पृष्ठभूमि’ वाले, समाजसेवा में सक्रिय, शिक्षित, और निष्ठावान युवाओं को संगठनात्मक दायित्व दे, वही चेहरे जो बदलाव का वास्तविक प्रतीक बन सकें।
● संगठनात्मक ढांचे की संकुचित परछाईं
बिहार जैसे राज्य में, जहाँ जातीय और सामाजिक समीकरण हर चुनावी गणित की नींव हैं, वहाँ संगठन की गहराई और विस्तार सबसे अधिक मायने रखता है। भाजपा और राजद जैसी पार्टियों की सफलता के पीछे वर्षों की मेहनत से तैयार माइक्रो लेवल पर गठित संगठनात्मक इकाइयाँ हैं। इसके उलट जनसुराज का संगठन न तो पर्याप्त सक्रिय है, न ही आत्मनिर्भर। कई क्षेत्रों में पार्टी के लोकल प्रभारी अब भी अपने पुराने राजनीतिक आकाओं के लिए वोट मांगते पाए गए। इससे पार्टी के प्रति मतदाताओं में भ्रम और अविश्वास उत्पन्न होता है।
● नायक की छाया में नेतृत्व का संकट
प्रशांत किशोर ही जनसुराज का चेहरा हैं, इसमें कोई संदेह नहीं। परंतु जब वह पार्टी अध्यक्ष पद से दूरी बनाए रखते हैं और जनाधारविहीन नेताओं को जिम्मेदारी सौंपते हैं, तो यह आमजन की उस आकांक्षा को ठेस पहुँचाता है, जो पीके को ही अपने नेता के रूप में देखना चाहती है। एक नेता ही तो आंदोलन को स्वर, दिशा और उद्देश्य देता है। यदि वही मंच से अनुपस्थित हो, तो फिर कार्यकर्ताओं की प्रेरणा और जनता का विश्वास किसके इर्द-गिर्द केंद्रित होगा? प्रशांत किशोर को चाहिए कि वे नेतृत्व की बागडोर स्वयं थामें और जनता के समक्ष पूरी दृढ़ता से खड़े हों। छाया नहीं, अवतार बनें, यही जनसुराज को उसकी खोई हुई ऊर्जा लौटाने का मार्ग हो सकता है।
● जातिगत संरचना बनाम वर्गीय प्रतिनिधित्व
एक और गंभीर चूक यह रही कि पार्टी ने स्थानीय स्तर पर अपने संगठनात्मक ढांचे का निर्माण जातीय आधार पर किया। इससे यह संदेश गया कि जनसुराज भी उसी ‘पुरानी राजनीति की नई पैकिंग’ बन कर रह गई है। जबकि पीके लगातार विकास, शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य जैसे बुनियादी विषयों को प्राथमिकता देने की बात करते रहे हैं। विकल्प यह हो सकता है कि स्थानीय टीमों का गठन वर्गीय प्रतिनिधित्व के आधार पर हो, जैसे छात्रों, किसानों, महिलाओं, शिक्षकों, छोटे व्यवसायियों, दलितों, आदिवासियों आदि को समान अवसर मिले। इससे पार्टी की सामाजिक स्वीकार्यता बढ़ेगी और जातिवाद के आरोपों से भी मुक्ति मिलेगी।
● विचारधारा का धुंधलापन और छवि का भ्रम
जब कोई पार्टी विचारधारा के स्पष्ट धरातल पर खड़ी नहीं होती, तो उसका अस्तित्व रणनीतिक प्रयोगों तक सिमट जाता है। कुछ विश्लेषकों ने जनसुराज को ‘राजनीतिक स्टार्टअप’ की संज्ञा दी है, तो कुछ ने इसे एनडीए की ‘बी टीम’ बताकर खारिज किया है। ऐसे आरोपों का खंडन केवल बयानबाजी से नहीं, बल्कि सिद्धांतों की स्पष्टता और कार्यकर्ताओं की निष्ठा से ही किया जा सकता है। विचारधारा रहित संगठन, चाहे जितना भी मेहनत करे,अंततः जनता के मन में असमंजस ही उत्पन्न करता है।
● प्रशांत किशोर की पूँजी: लेकिन सीमित उपयोग
प्रशांत किशोर बिहार के राजनीतिक परिदृश्य में एक करिश्माई नाम हैं। उनके पास अनुभव है, विश्लेषण है, और जनता से संवाद की दुर्लभ क्षमता भी। परंतु यह पूँजी तभी उपयोगी है, जब उसका उपयोग संपूर्ण रूप से हो। यदि पीके अपने को रणनीतिकार तक सीमित रखें और नेतृत्व का भार दूसरों को सौंपें, तो यह ‘जनसुराज’ को ‘जनाकांक्षा’ से दूर ले जाएगा।
● मीडिया रणनीति की विफलता
जनसुराज की अब तक की यात्रा को मीडिया में जिस रूप में प्रस्तुत किया गया, वह एक आंदोलन से ज़्यादा एक व्यक्ति-केंद्रित प्रयोग के रूप में उभरा। अधिकांश राष्ट्रीय और क्षेत्रीय मीडिया में पार्टी की उपस्थिति सीमित रही और जहां भी रही, वहां कोई ठोस राजनीतिक विमर्श खड़ा नहीं हो पाया। मीडिया को केवल चुनाव प्रचार का माध्यम नहीं, बल्कि राजनीतिक संवाद का मंच मानना होगा। जनसुराज को चाहिए कि वह बुद्धिजीवियों, पत्रकारों, समाजकर्मियों, और डिजिटल मीडिया क्रिएटर्स से संवाद स्थापित करे। प्रिंट, टीवी, सोशल मीडिया और यूट्यूब चैनलों के माध्यम से अपनी वैकल्पिक राजनीति की स्थायी छवि बनानी होगी।
●नीति-आधारित दस्तावेजों का अभाव
जनसुराज ने अब तक कोई ठोस नीतिगत घोषणापत्र या विजन डॉक्युमेंट जारी नहीं किया है। इसके अभाव में मतदाताओं को यह स्पष्ट नहीं है कि पार्टी किस तरह से बिहार की शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, उद्योग, और बेरोजगारी की समस्याओं को हल करेगी। पार्टी को चाहिए कि वह क्षेत्रवार और वर्गवार नीति दस्तावेज तैयार करे- जैसे “बिहार का किसान नीति”, “युवा नीति”, “शिक्षा नीति”, आदि। इससे मतदाताओं को पार्टी के इरादों पर भरोसा होगा और एक विचारधारात्मक गहराई विकसित होगी।
● लोकल बोली और सांस्कृतिक पहचान से दूरी
बिहार एक भाषिक और सांस्कृतिक विविधता वाला राज्य है- मगही, भोजपुरी, मैथिली, अंगिका जैसी भाषाएँ यहाँ की आत्मा हैं। जनसुराज के प्रचार में एकरूप भाषा शैली और शहरी टोन हावी है, जिससे ग्रामीण जनता खुद को जुड़ा हुआ महसूस नहीं करती।प्रचार सामग्री और संवादों को स्थानीय बोलियों में रूपांतरित करना होगा। साथ ही स्थानीय त्योहारों, सांस्कृतिक आयोजनों, ग्राम पंचायतों में भागीदारी के माध्यम से पार्टी को जनमानस की भावनात्मक धारा में प्रवेश करना होगा।
● बिहार से बाहर के बुद्धिजीवी असर डाल रहे हैं, मगर स्थानीय सोच नहीं जुड़ रही
प्रशांत किशोर का मॉडल एक ‘पैन-इंडिया पॉलिटिकल मैनेजमेंट’ से उपजा है, जिसमें बिहारी समाज की ऐतिहासिक पीड़ाएं और सांस्कृतिक चेतना कहीं खो जाती हैं। बिहार में राजनीति केवल चुनाव नहीं, सामाजिक प्रतिष्ठा और परंपरा का भी प्रतिनिधित्व करती है। पार्टी को बिहारी अस्मिता और आत्मगौरव को केंद्र में लाना चाहिए- जैसे “बिहार मॉडल ऑफ गवर्नेंस” पर ठोस रूपरेखा तैयार कर, सारण- मगध- कोसल- अंग- पूर्णिया जैसे भौगोलिक खंडों के लिए स्थानीय योजनाएं प्रस्तुत कर।
●बिहार की राजनीति: बदलाव के लिए समय चाहिए
यह भी सच है कि बिहार की राजनीति में बदलाव रातोंरात संभव नहीं। यहाँ की ज़मीन वर्षों की राजनीतिक परंपराओं, वंशवादी प्रभावों और जातीय चेतनाओं से जुड़ी है। जो मतदाता दशकों से लालू और नीतीश जैसे नेताओं को चुनते आ रहे हैं, वे एकदम से किसी नई पार्टी को क्यों अपनाएँगे, यह प्रश्न प्रासंगिक है।लेकिन इसका उत्तर यह भी है कि प्रामाणिकता, पारदर्शिता और निरंतरता से यदि जनसुराज अपने प्रयास जारी रखे, तो भविष्य में वह बदलाव का केंद्र बन सकती है।
●आगे क्या हो: परिष्कृत दृष्टिकोण और दीर्घकालिक निवेश
जनसुराज को अब चाहिए कि वह चुनावी हार से विचलित न हो, बल्कि उसे फीडबैक के रूप में ग्रहण करे। संगठन का पुनर्गठन, नेतृत्व में स्पष्टता, विचारधारा की घोषणा और जमीनी कार्यकर्ताओं का सशक्तिकरण- ये सब जरूरी कदम हैं। साथ ही, उन्हें अपने एजेंडे को स्पष्ट शब्दों में जनता तक पहुँचाना होगा- शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, युवाओं की भागीदारी, महिला सशक्तिकरण और औद्योगिक निवेश के ठोस खाके के साथ। यदि यह सब एक सुसंगत रणनीति के तहत किया जाए, तो वह दिन दूर नहीं जब जनसुराज केवल ‘एक नई पार्टी’ नहीं, बल्कि ‘नई राजनीति की जनक’ कहलाएगी।
● नींव अभी भी मजबूत हो सकती है
बदलाव की कोई भी कोशिश पहली ही परीक्षा में सफल हो, यह आवश्यक नहीं। प्रशांत किशोर का प्रयास, नीयत और दृष्टि यदि सच में ईमानदार है, तो बिहार की जनता उन्हें एक अवसर अवश्य देगी, बशर्ते वे सही चेहरे, सही नीतियाँ और सही दृष्टिकोण के साथ आगे बढ़ें। संघर्षशील लोकतंत्रों में उम्मीद कभी मरती नहीं, उसे केवल दिशा चाहिए, नेतृत्व चाहिए और विश्वास चाहिए। जनसुराज यदि इन तीनों को साध ले, तो बिहार की राजनीति को सचमुच एक नई दिशा मिल सकती है।
जनसुराज एक विचार है, एक नई राजनीतिक चेतना का बीज। लेकिन वह तभी वटवृक्ष बन पाएगा जब उसकी जड़ें सिद्धांत, ईमानदारी, नेतृत्व और जनसंपर्क से पोषित हों। प्रशांत किशोर यदि वास्तव में बिहार को बदलना चाहते हैं, तो उन्हें अपने विचार को संगठन, नीति, नेतृत्व और स्थानीय भावना के संगम से जोड़ना होगा। वक्त कठिन है, लेकिन संभावनाएं अब भी जीवित हैं- बशर्ते जनसुराज नई राजनीति के वादे को नए तरीकों और नए चेहरों के माध्यम से साकार करे।