
डॉ. अमित तिवारी
“मैंने जो देखा, महसूस किया, और भीतर जिया — उसे ही इन पन्नों पर उतार दिया।” डॉ. सत्यवान सौरभ की यही पंक्ति उनके लघुकथा संग्रह “फैसला” की आत्मा बनकर उभरती है। जब समकालीन हिंदी साहित्य में लघुकथा को महज़ लघुता का पर्याय मान लिया गया है, ऐसे समय में यह संग्रह उस परंपरा को पुनर्जीवित करता है जहाँ कम शब्दों में गहरी बात कही जाती है—बिना शोर, बिना बनावट, लेकिन पूरे आत्मबल और सामाजिक विवेक के साथ।
सामाजिक यथार्थ का निर्भीक दर्पण
“फैसला” की लघुकथाएँ समाज के उन दबे-छुपे सवालों को उठाती हैं, जिन पर आमतौर पर साहित्य मौन रहता है—बुज़ुर्गों की उपेक्षा, स्त्रियों की चुप्पी, रिश्तों की खोखली होती परिभाषा, बच्चों में नैतिक शिक्षा का ह्रास, और शिक्षित समाज की संवेदनहीनता। ‘थाली’, ‘चुप्पी’, ‘वसीयत’, ‘माफ़ करना माँ’, ‘गूंगा टीवी’ जैसी लघुकथाएँ पाठक को भीतर से झकझोरती हैं।
लेखक किसी आदर्श दुनिया की कल्पना नहीं करते, बल्कि उसी दुनिया को हमारे सामने लाते हैं जिसमें हम जीते हैं—फर्क बस इतना है कि उन्होंने ‘देखा’ नहीं, ‘महसूस’ किया है, और यह अंतर ही उनकी रचनात्मकता को विशिष्ट बनाता है।
शैली और भाषा: सरलता में गहराई
डॉ. सौरभ की भाषा सौंदर्य का नहीं, सच्चाई का औज़ार है। उनकी शैली में कोई शब्दाडंबर नहीं, कोई भाषाई चमत्कार नहीं, फिर भी हर कहानी के अंत में एक ऐसा वाक्य होता है जो सीधे हृदय में उतरता है—जैसे कि:
“बीमारी नहीं मारती बेटा, बेबसी मारती है।”
“हर अंत, एक ‘फैसला’ मांगता है।”
ऐसे वाक्य महज़ पंक्तियाँ नहीं, बल्कि संवेदना के हस्ताक्षर हैं। यह शैली पाठक को पढ़ने की नहीं, महसूस करने की प्रक्रिया से जोड़ती है।
पात्र: हमारे बीच के लोग
इन कहानियों के पात्र कोई नायक-नायिका नहीं हैं—वे माँ हैं, बहू हैं, बूढ़े हैं, बच्चे हैं, शिक्षक हैं, बेटे हैं। ये सब हमारे घरों, पड़ोस, मोहल्लों से उठे हैं। हर पात्र का संघर्ष निजी होते हुए भी सामूहिक है। कहानी ‘दूसरा बच्चा’ में रीना का आत्मनिर्णय, ‘पुरानी किताब’ में एक दादा की अधूरी प्रेमकथा, ‘कोचिंग’ में एक माँ का विश्वास—ये सब सामाजिक विमर्श के निजी छोर हैं।
स्त्री पात्र विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं—वे ‘अबला’ नहीं, बल्कि चुप प्रतिरोध की साक्षात मूर्ति हैं। ‘चुप्पी’ में बहू का अंतिम संवाद मानो हर चुप महिला की चीख बन जाता है।
लघुकथा की कसौटी पर खरा
“फैसला” की लघुकथाएँ उस अनुशासन का पालन करती हैं, जो एक सच्चे लघुकथाकार को परिभाषित करता है—संक्षिप्तता, स्पष्टता, और प्रहारक क्षमता। हर कथा में आरंभ, मध्य और अंत का संतुलन है, और अंत में एक ऐसा मोड़ जो पाठक को सोचने पर विवश करता है।
नैतिकता और विचारशीलता की पुनर्स्थापना
इस संग्रह की खूबी यह है कि यह नैतिक उपदेश नहीं देता, पर हर कहानी अपने पीछे एक नैतिक प्रश्न छोड़ जाती है। लेखक का उद्देश्य कोई उपदेश देना नहीं, बल्कि पाठक के भीतर सवाल खड़े करना है। हर कथा के बाद पाठक थोड़ी देर ठहरता है—कभी आत्मग्लानि में, कभी सोच में, कभी सिर्फ चुप होकर।
समकालीन संदर्भों में प्रासंगिक
डॉ. सत्यवान सौरभ समसामयिक संदर्भों को भी कहानियों में निपुणता से पिरोते हैं—‘कोचिंग’, ‘गूंगा टीवी’, ‘NGO और वृद्धावस्था’, ‘किताबों का महत्व’, ‘संवेदना की कमी’—हर कहानी आज के समाज की पहचान कराती है।
यह संग्रह क्यों अनिवार्य है?
“फैसला” केवल लघुकथाओं का संग्रह नहीं है, यह एक लेखक की संवेदना, उसकी सामाजिक ज़िम्मेदारी और उसके आत्म-संघर्ष का दस्तावेज़ है। यह संग्रह बताता है कि लेखन, अगर सच्चा हो, तो वह समाज को आईना दिखाने का सबसे सशक्त माध्यम बन सकता है। हर कहानी हमें कुछ ‘फैसला’ करने पर मजबूर करती है—अपने भीतर, अपने रिश्तों में, अपने समाज को लेकर। डॉ. सत्यवान सौरभ का यह कार्य हिंदी लघुकथा साहित्य में एक मील का पत्थर है, जो भावुकता, विवेक और सामाजिक चेतना का संतुलित समागम है।
यह संग्रह पढ़ा नहीं, जिया जाना चाहिए।