हमारे यहां चुनाव स्वतंत्र तो हैं किंतु क्या वे निष्पक्ष भी हैं?

Elections here are free but are they fair?

प्रदीप शर्मा

क्या भारतीय चुनाव स्वतंत्र और निष्पक्ष हैं? यही वो बहस है, जो राहुल गांधी द्वारा चुनाव आयोग पर हमले के साथ शुरू हुई है। हमारा मानना है कि भारतीय चुनाव आमतौर पर स्वतंत्र हैं, लेकिन जरूरी नहीं कि वो हमेशा निष्पक्ष भी हों। जवाहरलाल नेहरू ने आजादी के बाद जब सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार लागू करने की वकालत की थी तो कई लोगों ने इसे ना सिर्फ इतिहास का ‘सबसे बड़ा जुआ’ कहकर खारिज किया, बल्कि यह चेतावनी तक दी कि इससे हमारा नवोदित गणतंत्र और अधिक टुकड़ों में बंट जाएगा। लेकिन 18 आम चुनावों के बाद अब हम दावा कर सकते हैं कि चुनावी लोकतंत्र के प्रति नेहरू की प्रतिबद्धता जुआ नहीं, बल्कि भविष्य में किया गया निवेश था।

तथ्य गवाह हैं कि 1952 का पहला चुनाव चुनौतीपूर्ण मौसम और लॉजिस्टिक मसलों के कारण छह महीने तक चला। इसमें बनाए गए 1.96 लाख मतदान केंद्रों में से 27,527 महिलाओं के लिए आरक्षित थे। करीब 17.32 करोड़ वैध मतदाताओं में से 45% ने मतदान किया।

इसकी तुलना में 2024 के चुनाव में 10.5 लाख मतदान केंद्रों पर 96.8 करोड़ वैध मतदाता थे। 64.6 करोड़ मतदाताओं ने वोट दिया, जिनमें 31.2 करोड़ महिलाएं थीं। किसी भी चुनाव में यह ​महिलाओं की सर्वाधिक भागीदारी थी। इतने बड़े पैमाने पर अपेक्षाकृत शांतिपूर्ण चुनाव कराना एक उल्लेखनीय उपलब्धि है।

अब उस दौर को भी याद करें, जब किराए के गुंडे समूचे बूथ पर कब्जा कर लेते थे। फर्जी वोटिंग आम थी। 1990 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के दौरान मुंबई के उमेरखड़ी में एक बूथ कैप्चरिंग देखी थी। साम्प्रदायिक तनाव के बीच हुए उस चुनाव में मुस्लिम लीग और शिवसेना आमने-सामने थीं। हमने दोनों पक्षों को स्थानीय पुलिसकर्मियों को धमकाकर मतदान केंद्रों पर कब्जा करते और मतपत्रों पर मुहर लगाते देखा था।

यह ईवीएम और टीवी से पहले का युग था, लेकिन हमारी खबरों और तस्वीरों के आधार पर री-पोल करवाया गया। आज भी बंगाल के कुछ हिस्सों में चुनाव से पहले हिंसा होती है। 2024 में पश्चिमी यूपी, खासकर मुस्लिम बहुल इलाकों में पुलिस की मिलीभगत से मतदाताओं को धमकाने की खबरें आईं।

लेकिन आज मतदाता पहले से कहीं अधिक जागरूक और सशक्त हैं। पहले के जमाने में बुजुर्ग, महिलाए दबंगों के डर से वोट ही नहीं दे पाते थे। बदलते जातिगत समीकरणों और मीडिया के कारण आज ऐसा होने की संभावना कम है। देखें तो मतदान हमारे समाज में नागरिकों की दुर्लभ समानता का जश्न है। इस दिन जामनगर रिफाइनरी का मजदूर भी अम्बानी के बराबर मताधिकार रखता है और धारावी का निवासी भी अदाणी की तरह मतदान कर सकता है।

भारत में चुनाव अधिक स्वतंत्र तो हुए हैं, लेकिन उनमें निष्पक्षता जरा कम है। समान अवसर देने की भावना चुनावी लोकतंत्र के केंद्र में है। हर उम्मीदवार और पार्टी की दौड़ एक ही जगह से शुरू होनी चाहिए, लेकिन आज इस दौड़ में सत्ताधारी अपने विपक्षियों पर पूरी तरह हावी हैं।

यह धनबल और सत्ता के दुरुपयोग के घातक गठजोड़ का नतीजा है। भारतीय राजनीति में धनबल हमेशा से रहा है। जब कांग्रेस हावी थी तो पैसे तक उसकी पहुंच प्रतिस्पर्धियों से कहीं अधिक थी। चुनावी जंग में पैसा निर्णायक तो नहीं होता, किंतु धन-समृद्ध दलों को महत्वपूर्ण बढ़त जरूर देता है।

लेकिन, असल गेम-चेंजर तो यह है कि समान अवसर की अवधारणा को पूरी तरह तोड़-मरोड़ने के लिए सत्ता की ताकत को किस प्रकार ‘हथियार’ बनाया जाता है। प्रतिस्पर्धियों को निशाना बनाने के लिए सरकारी एजेंसियों का इस्तेमाल किया जाता है।

चुनाव से पहले सत्तारूढ़ दल द्वारा करदाताओं के पैसे को कल्याणकारी योजनाओं के नाम पर चुनिंदा मतदाता समूहों में बांटना आम हो गया है। ‘रेवड़ी पॉलिटिक्स’ के खेल में आज भाजपा ही बड़ी खिलाड़ी है- चाहे महाराष्ट्र में लाड़की बहन योजना हो या अब बिहार में मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना। नैरेटिव को नियंत्रित किया जाता है। सत्तारूढ़ दल सरकारी पैसे का इस्तेमाल कर विज्ञापनों के नाम पर पैसा लुटाते हैं।

2024 के चुनावों से पहले आयकर विभाग ने 1990 के दशक से संबंधित प्रकरणों पर कांग्रेस को नोटिस जारी कर उसके खाते फ्रीज कर दिए, लेकिन आयोग ने कार्रवाई नहीं की। साम्प्रदायिक बयानबाजी अनियंत्रित रही। जब कर्नाटक में संभावित वोटर फ्रॉड पर मामला दर्ज होता है तो आयोग पुलिस जांच में शामिल होने में हिचकिचाहट दिखाता है। जबकि निष्पक्ष चुनाव के लिए ऐसे आयोग की जरूरत है जो निष्पक्षता से कार्रवाई करे।

पेड न्यूज और धनबल का बेरोकटोक इस्तेमाल होता है। मतदाता सूचियों में रहस्यमयी तरीके से लोगों के नाम जुड़ने-हटाने की खबरें आईं तो आयोग ने विशेष गहन पुनरीक्षण शुरू कर दिया, जो स्वयं अपारदर्शी व कुप्रबंधन से भरा है। इसीकारण इसका विरोध सिर्फ बिहार में ही नहीं कई और राज्यों में भी हो रहा है। चुनाव आयोग को चाहिए की उस पर जो भी प्रश्न उठ रहे है उसका तर्क सहित जवाब दे ताकि आयोग की प्रतिष्ठा कायम रहे।