सत्य की जीत का सन्देश देता है दशहरा

Dussehra gives the message of victory of truth

रमेश सर्राफ धमोरा

भारत एक विविधताओं से भरा देश है जहाँ अनेक धर्मों और संस्कृतियों के लोग साथ रहते हैं। यहां साल भर अनेक त्योंहार मनाए जाते हैं जो न केवल धार्मिक महत्व रखते हैं, बल्कि सामाजिक एकता और सांस्कृतिक समृद्धि का प्रतीक भी होते हैं। इन्हीं प्रमुख त्योहारों में से एक है दशहरा जिसे विजयादशमी के नाम से भी जाना जाता है। यह पर्व अच्छाई की बुराई पर जीत का प्रतीक है और इसका भारतीय संस्कृति में एक विशेष स्थान है। दशहरा का पर्व भगवान राम की रावण पर विजय के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। इसे विजयादशमी कहा जाता है, जिसका अर्थ है “विजय प्राप्त करने वाला दसवाँ दिन”। रामायण के अनुसार भगवान राम ने रावण का वध कर अपनी पत्नी सीता को उसके बंदीगृह से मुक्त कराया था। यह पर्व यह संदेश देता है कि चाहे बुराई कितनी भी शक्तिशाली क्यों न हो अंत में जीत सत्य और धर्म की ही होती है। यह त्योहार लोगों को नैतिक मूल्यों, सत्य, और कर्तव्य के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है।

दशहरा शब्द हिंदी के दो शब्दों दस और हारा से मिलकर बना है। जहां दस गणित के अंक दस (10) और हारा शब्द पराजित का सूचक है। इसलिए यदि इन दो शब्दों को जोड़ दिया जाए तो दशहरा बनता है। जो उस दिन का प्रतीक है जब दस सिर वाले दुष्ट रावण का भगवान राम ने वध किया था। दशहरा अथवा विजयदशमी पर्व को भगवान राम की विजय के रूप में मनाया जाए अथवा दुर्गा पूजा के रूप में। दोनों ही रूपों में यह शक्ति-पूजा का पर्व है। शस्त्र पूजन की तिथि है। हर्ष और उल्लास तथा विजय का पर्व है।

दशहरा भारत के सबसे महत्वपूर्ण त्योहारों में से एक है। इसी दिन भगवान राम ने बुराई के प्रतीक दस सिर वाले रावण का संहार किया था तो देवताओं को हराकर स्वर्ग पर अधिकार करने वाले महिषासुर का 10 दिन तक चले भयंकर युद्ध के बाद मां दुर्गा ने वध किया था। इसीलिये इसको विजयादशमी के नाम से जाना जाता है। अश्विन मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को इसका आयोजन होता है। इसे असत्य पर सत्य की विजय के रूप में मनाया जाता है। इसी दिन लोग नया कार्य प्रारम्भ करते हैं। इस दिन शस्त्र-पूजा की जाती है। इस दिन जगह-जगह मेले लगते हैं। रामलीला का समापन होता है। रावण का विशाल पुतला बनाकर उसे जलाया जाता है।

भारतीय संस्कृति वीरता की पूजक व शौर्य की उपासक है। व्यक्ति और समाज के रक्त में वीरता प्रकट हो इसलिए दशहरे का उत्सव रखा गया है। भारत कृषि प्रधान देश है। जब किसान अपने खेत में फसल उगाकर अनाज घर लाता है तो उसके उल्लास और उमंग का पारावार नहीं रहता। इस प्रसन्नता के लिये वह भगवान की कृपा को मानता है और उसे प्रकट करने के लिए उनका पूजन करता है। भारतवर्ष में यह पर्व विभिन्न प्रदेशों में विभिन्न प्रकार से मनाया जाता है।

बंगाल, ओडिशा और असम में यह पर्व दुर्गा पूजा के रूप में ही मनाया जाता है। यह बंगालियों, ओडिया, और आसमिया लोगों का सबसे महत्वपूर्ण त्योहार है। बंगाल में दशहरा पूरे पांच दिनों के लिए मनाया जाता है। ओडिशा और असम मे चार दिन तक त्योहार चलता है। यहां देवी दुर्गा को भव्य सुशोभित पंडालों में विराजमान करते हैं। देश के नामी कलाकारों को बुलवा कर दुर्गा की मूर्ति तैयार करवाई जाती हैं। यहां दशमी के दिन विशेष पूजा का आयोजन किया जाता है और प्रसाद वितरण किया जाता है। पुरुष आपस में आलिंगन करते हैं जिसे कोलाकुली कहते हैं। स्त्रियां देवी के माथे पर सिंदूर चढ़ाती हैं व देवी को अश्रुपूरित विदाई देती हैं। इसके साथ ही वे आपस में भी सिंदूर लगाती हैं व सिंदूर से खेलती हैं। इस दिन यहां नीलकंठ पक्षी को देखना बहुत ही शुभ माना जाता है। अन्त में देवी प्रतिमाओं को विसर्जन के लिए ले जाया जाता है।

महाराष्ट्र में नवरात्रि के नौ दिन मां दुर्गा को समर्पित रहते हैं जबकि दसवें दिन ज्ञान की देवी सरस्वती की वंदना की जाती है। इस दिन विद्यालय जाने वाले बच्चे अपनी पढ़ाई में आशीर्वाद पाने के लिए मां सरस्वती के तांत्रिक चिह्नों की पूजा करते हैं। किसी भी चीज को प्रारंभ करने के लिए खासकर विद्या आरंभ करने के लिए यह दिन काफी शुभ माना जाता है। महाराष्ट्र के लोग इस दिन विवाह, गृह-प्रवेश एवं नये घर खरीदने का शुभ मुहूर्त समझते हैं। महाराष्ट्र में इस अवसर पर सिलंगण के नाम से सामाजिक महोत्सव के रूप में भी इसको मनाया जाता है।

कर्नाटक में मैसूर का दशहरा भी पूरे भारत में प्रसिद्ध है। मैसूर में दशहरे के समय पूरे शहर की गलियों को रोशनी से सज्जित किया जाता है और हाथियों का शृंगार कर पूरे शहर में एक भव्य जुलूस निकाला जाता है। इस समय प्रसिद्ध मैसूर महल को दीपमालिकाओं से दुल्हन की तरह सजाया जाता है। इसके साथ शहर में लोग टार्च लाइट के संग नृत्य और संगीत की शोभायात्रा का आनंद लेते हैं। पंजाब में दशहरा नवरात्रि के नौ दिन का उपवास रखकर मनाते हैं।

हिमाचल प्रदेश में कुल्लू का दशहरा बहुत प्रसिद्ध है। अन्य स्थानों की ही भांति यहां भी दस दिन अथवा एक सप्ताह पूर्व इस पर्व की तैयारी आरंभ हो जाती है। स्त्रियां और पुरुष सभी सुंदर वस्त्रों से सज्जित होकर ढोल, नगाड़े, बांसुरी आदि वाद्य यंत्रो को लेकर बाहर निकलते हैं। पहाड़ी लोग अपने ग्रामीण देवता का धूम धाम से जुलूस निकाल कर पूजन करते हैं। देवताओं की मूर्तियों को बहुत ही आकर्षक पालकी में सुंदर ढंग से सजाया जाता है। साथ ही वे अपने मुख्य देवता रघुनाथ जी की भी पूजा करते हैं। इस जुलूस में प्रशिक्षित नर्तक नटी नृत्य करते हैं। इस प्रकार जुलूस बनाकर नगर के मुख्य भागों से होते हुए नगर परिक्रमा करते हैं और कुल्लू नगर में देवता रघुनाथजी की वंदना से दशहरे के उत्सव का आरंभ करते हैं। दशमी के दिन इस उत्सव की शोभा निराली होती है।

बस्तर में दशहरे के मुख्य कारण को राम की रावण पर विजय ना मानकरलोग इसे मां दंतेश्वरी की आराधना को समर्पित एक पर्व मानते हैं। दंतेश्वरी माता बस्तर अंचल के निवासियों की आराध्य देवी हैंजो दुर्गा का ही रूप हैं। यहां यह पर्व पूरे 75 दिन चलता है। यहाँ दशहरा श्रावण मास की अमावस से आश्विन मास की शुक्ल त्रयोदशी तक चलता है। बस्तर में यह समारोह लगभग 15वीं शताब्दी से शुरु हुआ था। इसका समापन अश्विन शुक्ल त्रयोदशी को ओहाड़ी पर्व से होता है।

गुजरात में मिट्टी सुशोभित रंगीन घड़ा देवी का प्रतीक माना जाता है और इसको कुंवारी लड़कियां सिर पर रखकर एक लोकप्रिय नृत्य करती हैं जिसे गरबा कहा जाता है। गरबा नृत्य इस पर्व की शान है। पुरुष एवं स्त्रियां दो छोटे रंगीन डंडों को संगीत की लय पर आपस में बजाते हुए घूम घूम कर नृत्य करते हैं। तमिलनाडु, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश एवं कर्नाटक में दशहरा नौ दिनों तक चलता है जिसमें तीन देवियां लक्ष्मी, सरस्वती और दुर्गा की पूजा करते हैं। पहले तीन दिन धन और समृद्धि की देवी लक्ष्मी का पूजन होता है। अगले तीन दिन कला और विद्या की देवी सरस्वती की अर्चना की जाती है और अंतिम दिन देवी शक्ति की देवी दुर्गा की स्तुति की जाती है। पूजन स्थल को अच्छी तरह फूलों और दीपकों से सजाया जाता है। लोग एक दूसरे को मिठाइयां व कपड़े देते हैं।

कश्मीर के अल्पसंख्यक हिन्दू नवरात्रि के पर्व को श्रद्धा से मनाते हैं। परिवार के सारे वयस्क सदस्य नौ दिनों तक उपवास करते हैं। अत्यंत पुरानी परम्परा के अनुसार नौ दिनों तक लोग माता खीर भवानी के दर्शन करने के लिए जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि आश्विन शुक्ल दशमी को तारा उदय होने के समय विजय नामक मुहूर्त होता है। यह काल सर्वकार्य सिद्धिदायक होता है। इसलिए भी इसे विजयादशमी कहते हैं।