एक सांसद क्या कर रहा है, इसकी उचित जांच और ऑडिट की आवश्यकता है और उसके आधार पर कुछ नियमों को बनाने की आवश्यकता है, सत्ताधारी दलों ने कभी ऐसे नियम नहीं बनाए क्योंकि वे जानते हैं कि एक दिन उनके लिए यह मुश्किल होगा जब वे विपक्षी पार्टी बन जायेंगे। मेरे अनुसार सर्वोच्च न्यायालयों को हस्तक्षेप करने की आवश्यकता है और इस मामले में व्यवधानों के खिलाफ अंतिम कार्रवाई करने के लिए राष्ट्रपति को कुछ ठोस शक्तियां भी दी जानी चाहिए। देश के लिए अनुत्पादक संसद सत्रों, समय और धन के संदर्भ में क्या निहितार्थ हैं? और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जब संसद के कामकाज में व्यवधान सामान्य हो गया है, तो यह दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए कितना चिंताजनक है?
प्रियंका ‘सौरभ’
जब संसद चलती है तो बात समाज की होती है राष्ट्र की होती है। विरोध या गतिरोध के कारण जब संसद नहीं चलती है तो नुकसान किसका होता है। सदन न चलने की बड़ी कीमत देश चुकाता है, उसके नागरिक चुकाते है। आज मुद्दा संसद की कार्यवाही और आर्थिक नुकसान का है। मुद्दा सदन की गरिमा और उपयोगिता का है। इस बार संसद के दो सप्ताह के मानसून सत्र को बार-बार बाधित होने के कारण स्थगित करना पड़ा। देश का खर्च व्यर्थ जा रहा है, चर्चा का स्तर घटिया होने से संसद की गरिमा को चोट पहुँच रही है आर्थिक नुकसान के साथ वैधानिक नुकसान की कीमत का हम आकलन ही नहीं कर सकते। अगर कानून ही नहीं बनेंगे तो देश कैसे चलेगा। क्या देश इस जाया समय की भरपाई कर पायेगा कभी?
देश की जनता सांसद चुनकर इसलिए नहीं भेजती कि वो दिल्ली में जाकर आराम फरमाए और देश के पैसे को जाया होने दे। लोग सांसद इसलिए चुनते है कि वो उनकी आवाज़ बने, उनकी समस्याओं का समाधान लेकर आये। अगर ऐसे ही संसद ठप्प रही तो जनता और उनकी समस्याओं का क्या होगा। संसद समाज के लिए जरुरी चीज़ों के लिए बात करने और उनको वास्तविक रूप देने के लिए बनाई गयी है। अगर ऐसे ही चलता रहा तो देश की बेरोजगारी, स्वास्थ्य, शिक्षा और अन्य आम मुद्दों का क्या होगा? कौन समाधान ढूंढेगा ? आखिर क्यों प्रश्नकाल और शून्य काल को गर्त में धकेल दिया गया है? देश को समय पर जरूरत के बिल नहीं मिलेंगे तो क्या होगा समाज का, देश का, लोगों का? समाज को जिसकी आज जरूरत है वो कल तक भी नहीं मिले तो क्या रहेगा? समय के साथ नहीं चले तो देश का पिछड़ना तय है। देश का दुर्भाग्य है कि सरकार भी विपक्ष के साथ-साथ इसमें शामिल नज़र आती है।
संसद के मानसून सत्र में बार-बार व्यवधानों के कारण, स्थगन के कारण, इस सत्र के दौरान अब तक बहुत ही नगण्य कार्य हुआ है। विभिन्न विपक्षी दलों के लगभग दो दर्जन सांसदों को अभद्र व्यवहार और कदाचार के कारण निलंबित भी किया गया। यह, निश्चित रूप से, सरकार और विपक्ष के बीच एक नया फ्लैशपॉइंट बन गया, जिससे आगे हंगामे और व्यवधान पैदा हुए। देश के लिए अनुत्पादक संसद सत्रों, समय और धन के संदर्भ में क्या निहितार्थ हैं? और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जब संसद के कामकाज में व्यवधान सामान्य हो गया है, तो यह दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए कितना चिंताजनक है?
आज सवाल देश के लोकतंत्र का है। संसद की गरिमा का है। ऐसा क्यों है कि देश के अहम मुद्दों पर चर्चा को निकालकर भारत के राष्ट्रपति और भारत के उपराष्ट्रपति के चुनावों को सर्वोच्च प्राथमिकता सरकार द्वारा दी जाती है। विपक्षी दल जीएसटी और मुद्रास्फीति जैसे विभिन्न मुद्दों पर सरकार से स्पष्टता और जवाबदेही प्राप्त करने का अवसर खो रहे हैं। दोनों सदनों में विभिन्न दलों के बीच सहयोग और समन्वय की कमी के कारण व्यवधान हैं और पैसे और समय की बर्बादी हैं। संसद में पर्याप्त चर्चा के बिना पारित विधेयकों की गुणवत्ता पर चिंता भी देश को पीछे धकेल रही है। मूल्य वृद्धि पर बहस के लिए विपक्षी दलों के अनुरोध और पैकेज्ड खाद्य पदार्थों पर नई जीएसटी दरों पर बहस को लोकसभा अध्यक्ष द्वारा अनुमति नहीं देना, सरकार का अनुत्तरदायी रवैया और ट्रेजरी बेंचों की प्रतिशोधी मुद्रा,विपक्षी दलों का संसदीय मानदंडों का पालन नहीं कर ना मिलकर पूरी संसद को अनुशासन हीन कर रहे हैं।
बार-बार व्यवधानों के कारण, स्थगन के लिए बाध्य होने के कारण, सत्र के दौरान आज तक बहुत कम कामकाज हुआ है। 2012 में, सत्र के दौरान संसद चलाने के लिए हर मिनट 2.5 लाख रुपये खर्च किए गए थे। यह संख्या अब काफी अधिक होगी। राज्यसभा और लोकसभा साल भर में औसतन 80 दिनों तक चलती है, और प्रत्येक दिन में लगभग छह घंटे का कार्य होता है। प्रश्नकाल और शून्यकाल में कटौती कार्यपालिका पर संसदीय निरीक्षण के सिद्धांत को कमजोर करती है। इन व्यवधानों के परिणामस्वरूप गुणात्मक बहस और विचार-विमर्श के बिना विधेयकों को पारित किया जाता है। यदि ये व्यवधान जारी रहते हैं, तो इसके परिणामस्वरूप न्यायपालिका का हस्तक्षेप हो सकता है जो शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत के विरुद्ध है।
संसद को बाधित करने वाले सदस्यों के खिलाफ अवमानना प्रक्रिया शुरू करने का विशेषाधिकार है। इनका प्रभावशाली प्रयोग करके
व्यवस्था के भीतर से समाधान निकालना होगा। संसद अपने नियम और विनियम बनाती है, विधायी निकायों के प्रभावी कामकाज के लिए उन नियमों और विनियमों का पालन करना सदस्यों पर निर्भर है। ऐसा कब तक होगा? संसद को व्यक्तिगत स्तर और पार्टी स्तर दोनों पर आंतरिक जांच और संतुलन के साथ आना होगा। बार-बार व्यवधान डालने पर आनुपातिक दंड लगाया जा सकता है। एक संसद व्यवधान सूचकांक तैयार किया जा सकता है जिस पर व्यवधानों का स्वत: निलंबन लागू किया जा सकता है। साथ ही संसद के कार्य दिवसों में वृद्धि की जानी चाहिए। संसदीय कार्यवाही में लगातार व्यवधान एक नया मानदंड बनता जा रहा है जो पार्टियों के बीच विश्वास की कमी को बढ़ाता है। यह प्रवृत्ति एक स्वस्थ लोकतंत्र और संसदीय प्रणाली की निष्पक्षता में सेंध के लिए खराब है।
संसद में निरंतर हंगामे के परिणामस्वरूप दोनों सदनों में लंबे समय तक स्थगन होता है जो अंततः सदन में सार्वजनिक नीति के निर्माण को प्रभावित करता है। भारत दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में से एक है, जहां नीति पर अपनी राय के साथ हर किसी की अपनी आवाज है, लेकिन ये लंबे समय तक व्यवधान संसद की क्षमता को कम कर रहा है। दिन के अंत में हमें क्या परिणाम मिलता है, और चर्चा से हमें कितना लाभ होता है? हमें जो जवाब मिलते हैं, वे कुछ भी प्रभावी परिणाम नहीं हैं, हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने अपने शब्दों में कहा कि कानून का निर्माण विधायिका द्वारा सही लक्ष्य तक नहीं किया गया है और कुछ खामियां अभी भी कायम हैं। सरकार को लोगों की जरूरत के हिसाब से उचित कानून बनाने की जरूरत है। इस तरह का हंगामा कोई नई बात नहीं है, हमारे लोकतंत्र में यह एक नया सामान्य हो गया है। अब समय आ गया है कि हम अपनी संसदीय प्रक्रिया को बेहतर दक्षता के साथ सही दिशा में ले जाएं।
एक और बात हम सार्वजनिक रूप से उपलब्ध व्यक्ति के ट्रैक रिकॉर्ड और कार्यवाही में व्यक्ति कैसे कार्य कर रहे हैं, के साथ भविष्य के चुनावों के लिए प्रतिनिधियों को निलंबित कर सकते हैं। भारत में सहभागी लोकतंत्र है, यहां हर कोई अपनी राय सरकार के सामने रख सकता है, यहां विपक्ष और सत्ताधारी दल को कानून बनाने के लिए उचित तालमेल की जरूरत है। एक सांसद क्या कर रहा है, इसकी उचित जांच और ऑडिट की आवश्यकता है और उसके आधार पर कुछ नियमों को बनाने की आवश्यकता है, सत्ताधारी दलों ने कभी ऐसे नियम नहीं बनाए क्योंकि वे जानते हैं कि एक दिन उनके लिए यह मुश्किल होगा कि जब वे विपक्षी पार्टी बन जायँगे। मेरे अनुसार सर्वोच्च न्यायालयों को हस्तक्षेप करने की आवश्यकता है और उस मामले में व्यवधानों के खिलाफ अंतिम कार्रवाई करने के लिए राष्ट्रपति को कुछ ठोस शक्तियां भी दी जानी चाहिए।