ललित गर्ग
बढ़ती आत्महत्या की घटनाएं एक ऐसा बदनुमा दाग है जो हमारे तमाम विकास एवं शिक्षित होने के दावों को खोखला करता है। आत्महत्या शब्द जीवन से पलायन का डरावना सत्य है जो दिल को दहलाता है, डराता है, खौफ पैदा करता है, दर्द देता है। इसका दंश वे झेलते हैं जिनका कोई अपना आत्महत्या कर चला जाता है, उनके प्रियजन, रिश्तेदार एवं मित्र तो दुःखी होते ही हैं, सम्पूर्ण मानवता भी आहत एवं शर्मसार होती है। एक रिपोर्ट के अनुसार, 2019 में भारत में 1.39 लाख लोगों ने आत्महत्या की, जिनमें से लगभग 45 फीसदी लोग तनाव, अवसाद, बायपोलर डिसऑर्डर, सिजोफ्रेनिया जैसी समस्याओं का सामना कर रहे थे। ऐसे में यह कहा जा सकता है कि आत्महत्या के प्रमुख कारणों में तनाव, हिंसा, अवसाद, निराशा, नकारात्मकता सहित अन्य मानसिक समस्याएं, गंभीर रोगों के चलते निराशा, सामाजिक संघर्ष या दबाव न झेल पाना, अज्ञानता आदि शामिल हैं। ऐसी विभिन्न स्थितियों में व्यक्ति खुद को अकेला मानने लगता है और कई बार ऐसे निराशाजनक कदम उठा लेता है।
आत्महत्या की बढ़ती डरावनी स्थितियों को कम करने के लिये एवं आत्महत्या की बढ़ती घटनाओं पर नियंत्रण पाने के लिये विश्व आत्महत्या रोकथाम दिवस प्रतिवर्ष 10 सितंबर को मनाया जाता है, जिसे विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के सहयोग से अंतर्राष्ट्रीय एसोसिएशन फॉर आत्महत्या रोकथाम (इंटरनेशनल एसोसिएशन फॉर सुसाइड प्रवेंशन-आईएएसपी) द्वारा आयोजित किया जाता है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो ने हाल में भारत में आत्महत्या के जो आंकड़े जारी किये हैं, वे चिंताजनक हैं. किसी भी समाज और देश के लिए यह बेहद चिंताजनक स्थिति है। कोई शख्स आत्महत्या को आखिरी विकल्प क्यों मान रहा है? नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के मुताबिक देश में आत्महत्या के मामलों में 3.6 फीसदी की बढोत्तरी हुई है और औसतन देश में हर दो घंटे में तीन लोग जान दे रहे हैं। रिपोर्ट के अनुसार 2018 में कुल 1, 34, 516 लोगों ने खुदकुशी की, जो 2017 के 1, 29, 887 आत्महत्या के मामलों के मुकाबले 3.6 फीसदी अधिक है और यह आगामी वर्षों में लगातार बढ़ती जा रही है।
लेकिन सबसे चिंताजनक बात यह है कि देश में छात्रों की आत्महत्या की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के 2018 के आंकड़ों से स्टूडेंट्स की आत्महत्या को लेकर बेहद चिंताजनक तथ्य सामने आये हैं। 2018 में लगभग 10,159 छात्रों ने आत्महत्या की है। इनमें से एक चौथाई ने इम्तिहान में फेल होने के डर से आत्महत्या की। इसके अलावा प्रेम में नाकामी, उच्च-शिक्षा के मामले में आर्थिक समस्या, अच्छा प्लेसमेंट न मिलना और बेरोजगारी भी छात्रों की आत्महत्या की प्रमुख वजह के रूप में सामने आयी है। आंकड़ों के मुताबिक एक दशक में लगभग 82 हजार छात्रों ने आत्महत्या जैसा अतिरेक कदम उठाया है।. महाराष्ट्र में 1448 छात्रों के आत्महत्या के सबसे अधिक मामले सामने आये हैं।
बेटियां तो और भावुक होती हैं। माता-पिता के साथ संवादहीनता बढ़ने से बच्चे परिवार, स्कूल और कोचिंग में तारतम्य स्थापित नहीं कर पाते हैं और तनाव का शिकार हो जाते हैं। हमारी व्यवस्था ने उनके जीवन में अब सिर्फ पढ़ाई को ही रख छोड़ा है। रही-सही कसर मोबाइल ने पूरी कर दी है। दूसरी ओर माता-पिता के पास वक्त नहीं है, उनकी अपनी समस्याएं हैं। नौकरी और कारोबार की व्यस्तताएं हैं, उसका तनाव है। जहां मां नौकरीपेशा है, वहां संवादहीनता की स्थिति और गंभीर है। एक और वजह है, भारत में परंपरागत संयुक्त परिवार का तानाबाना टूटता जा रहा है। परिवार एकाकी हो गये हैं और नयी व्यवस्था में बच्चों को बाबा-दादी, नाना-नानी का सहारा नहीं मिल पाता है, जबकि कठिन वक्त में उन्हें इसकी सबसे ज्यादा जरूरत होती है। यही वजह है कि अनेक बच्चे आत्महत्या जैसे अतिरेक कदम उठा लेते हैं। बच्चे संघर्ष करने के बजाय हार मान कर आत्महत्या का सहज रास्ता चुन ले रहे हैं। माता-पिता और शिक्षकों की यह जिम्मेदारी है कि वे लगातार बच्चों को यह समझाएं कि परीक्षा परिणाम ही सब कुछ नहीं है। ऐसे सैकड़ों उदाहरण है कि इम्तिहान में बेहतर न करने वाले लोगों ने जीवन में सफलता के मुकाम हासिल किये हैं।
कभी कोई विद्यार्थी, कभी कोई पत्नी, व्यापारी अथवा किसान, कभी कोई सरकारी कर्मी तो कभी कोई प्रेमी-जीवन में समस्याओं से इतना घिरा हुआ महसूस करता है या नाउम्मीद हो जाता है कि उसके लिये जीवन से पलायन कर जाना ही सहज प्रतीत होता है और वह आत्महत्या कर लेता है। आत्महंता होते व्यक्ति के लिये समस्याएँ विराट हो गई है एवं सहनशक्ति क्षीण हुई है। यही कारण है कि विश्व में हर 40 सेकंड में एक व्यक्ति आत्महत्या करता है, इस तरह वर्ष से आठ लाख से अधिक लोग मर जाते हैं तथा इससे भी अधिक लोग आत्महत्या का असफल प्रयास करते हैं। वैश्विक स्तर पर आत्महत्या का सबसे सामान्य तरीका कीटनाशक खाना, फांसी लगाना, रेल्वे के आगे कूद जाना, पानी में डूबना और बंदूक हैं। आत्महत्या की समस्या दिन-पर-दिन विकराल होती जा रही है। इधर तीन-चार दशकों में विज्ञान की प्रगति के साथ जहां बीमारियों से होने वाली मृत्यु संख्या में कमी हुई है, वहीं इस वैज्ञानिक प्रगति एवं तथाकथित विकास के बीच आत्महत्याओं की संख्या पहले से अधिक हो गई है। यह समाज के हर एक व्यक्ति के लिए चिंता का विषय है।
चिंता की बात यह भी है कि आज के सुविधा भोगी जीवन ने तनाव, अवसाद, असंतुलन को बढ़ावा दिया है, अब सन्तोष धन का स्थान अंग्रेजी के मोर धन ने ले लिया है। जब सुविधावादी मनोवृत्ति सिर पर सवार होती हैं और उन्हें पूरा करने के लिये साधन नहीं जुटा पाते हैं तब कुंठित एवं तनावग्रस्त व्यक्ति को अन्तिम समाधान आत्महत्या में ही दिखता है। यह केवल भारत की समस्या नहीं है विदेशों में तो इसके आँकड़े चौंकाने वाले हैं। लगभग अस्सी नब्बे प्रतिशत किशोर किशोरियां तनावग्रस्त हैं जिनका डॉक्टरी इलाज चल रहा है। यह सब आज के अति भौतिकवादी एवं सुविधावादी युग की देन है। तकनीकी विकास ने मनुष्य को सुविधाएँ तो दीं लेकिन उससे उसकी मानवीयता, संतुलन छीन लिया। उसे अधिक-से-अधिक मशीन में और कम से कम मानव में तब्दील कर दिया है। एडवर्ड डेह्लबर्ग कहते हैं- जब कोई महसूस करता है कि उसकी जिन्दगी बेकार है तो वह या आत्महत्या करता है या यात्रा।’ प्रश्न है कि लोग दूसरा रास्ता क्यों नहीं अपनाते? आत्महत्या ही क्यों करते हैं?
आत्महत्या की बढ़ती घटनाओं को रोकना एक आदर्श एवं संतुलित समाज का आधार होना चाहिए। विश्व स्तर पर आयोजित होने वाले विश्व आत्महत्या रोकथाम दिवस की सार्थकता तभी है जब इस दिशा में कुछ ठोस उपक्रम हो। संपर्क, संवाद और देखभाल- यह तीन शब्द आत्महत्या की रोकथाम में मूल मंत्र साबित हो सकते हैं। आत्महत्या के पीछे मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, आर्थिक, पारिवारिक, व्यक्तिगत, सांस्कृतिक एवं परिस्थितिकीय कारण होते हैं। उन कारणों को खोजना जरूरी है। अनेक संगठन एवं व्यक्ति इस दिशा में सार्थक पहल कर रहे हैं। जिन्होंने आत्महत्या रोकने के उपाय खोजे हैं और अपने विचारों एवं कार्यों को अमलीजामा पहनाने के लिये मुहिम चला रहे हैं। फ्रांसिस थामसन ने कहा कि “अपने चरित्र में सुधार करने का प्रयास करते हुए, इस बात को समझें कि क्या काम आपके बूते का है और क्या आपके बूते से बाहर है।’ इसका सीधा-सा अर्थ तो यही हुआ कि आज ज्यांे-ज्यांे विकास के नये कीर्तिमान स्थापित हो रहे हैं, त्यांे-त्यांे आदर्श धूल-धूसरित होे रहे हैं और मनुष्य आत्महंता होता रहा है।