प्रभुनाथ शुक्ल
हमारे आसपास तीन प्रकार के आदमी मिलते हैं। लपेटन, फेटन और फिसलन। सभी को हम उनके उपनाम लपेटू, फेटू और फिसलू के नाम से बुलाते हैं। आगे हम आपको इनकी जन्म कुंडली के अनुसार इनके गुण और दोष का वर्णन करते हैं। अब बेचारे फिसलन जरा सा फिसले क्या, लपेटन और फेटन गिरोह के लोग पूरी तरह वर्चुवल मंच पर टेपा-टेपी शुरू कर दिए। वह झूठ को इतनी सिद्द्त से लपेटते और फेटते हैं कि बेचारे फिसलन की ऐसी-तैसी हो जाती है। लेकिन अब मजा आने लगा है। फिसलन के समर्थक भी लपेटू और फेटू की साजिश को समझ गए हैं। वे भी फेटू और लपेटू का जबाब ईट के बजाय पत्थर से देने लगे हैं।
अब क्या बताएं बेचारे फिसलन जानबूझकर फिसलते हैं या फिसलना उनकी फितरत में हैं यह कहना जरा मुश्किल है। क्योंकि इस बात को हम आजतक नहीं समझ पाए हैं कि वे गाहे-बगाहे फिसल क्यों जाते हैं। फिसलने के बाद जितना वह खुद को सँभालते हैं तब तक दूसरी-तीसरी और चौथी बार फिसल जाते हैं। हालांकि फिसलने के बाद संभल भी जाते हैं, लेकिन उनका संभलना लपेटू और फेटू गिरोह को रास नहीं आता। लपेटू गिरोह के लोग फिसलन की अच्छाईयों के बजाय सिर्फ बुराइयों की बात करते हैं। गिरोह के लोग तुरत-फुरत उनका वीडियो सोशलमीडिया पर वायरल कर देते हैं। जिसके बाद फिसलन की अनावश्यक रूप से लानत-मलानत होने लगती है। हालांकि लपेटू और फेटू के फिसलने का पूरा इतिहास रहा है। लेकिन उनकी वर्चुवल गिरोह उसे बाहर नहीं आने देती। क्योंकि उनका फिसलना मृत्युलोक में पुण्यफलदायीं है।
कहा जाता है कि फिसलना एक प्राकृतिक घटना और स्वाभाविक है। गाहे-बगाहे हर कोई फिसलता है। इस बारिश के मौसम में तो फिसलना आम बात है। कोई राह चलते फिसलता है। कोई राह में फिसल जाता है। कोई दिन तो कोई रात में फिसलता। कोई जानकर फिसलता है तो कोई अनजाने फिसलता है। कोई दिखाकर फिसलता है तो कोई छुपा कर। लेकिन फिसलते सभी हैं, क्योंकि फिसलने के बाद ही संभलने की समझ आती है। लेकिन बात जब फिसलन से जुडी हो तो यह आपदा में अवसर बन जाती है। उनका फिसलना किसी अविष्कार से कम नहीं होता। इससे स्किल डेवलपमेंट और आत्मनिर्भरता का मंत्र निकलता है।
हम क्या बताएं सौतन जीएसटी ने पहले से ही आटा गिला कर दिया है। दूसरी तरफ फेटू और लपेटू गिरोह के लोग लीटर-लीटर भर पानी डालकर उसे और गीला कर कर रहे हैं। इतना गिला कर दिया है कि वह गुलगुला बनाने लायक भी नहीं बचा। फेटूजी आप बेमिसाल हैं। लेकिन एक सवाल है कि पहले मुर्गी आयी या अंडा यानी पहले आटा आया या किलो। दूसरी बात किलो आया या लीटर। बेचारे कान नहीं देखते कौवा के पीछे पड़ जाते हैं। अरे भाई आटा किलो में मिले या लीटर में आपको क्या करना है। कम से कम लीटर में ही सही कोई आटे-दाल की बात तो कर रहा है जबकि आप कंगाली में दूसरे आटा गिला करने पर तूले हैं।
सोशलमीडिया पर लपेटू और फेटू गिरोह ने पूछा एक किलो आटा गूंथने में कितना पानी लगेगा। अरे भाई! जब आपने कभी आटा गुँथा ही नहीं तो आपको मालूम कहाँ से होगा। आप तो दूसरे को हीं फेटने और लपेटने में रात-दिन लगे रहते हैं। फेटनजी आपको आम लोगों के आटा-दाल कि कभी परवाह तो दिखी नहीं, आप तो बस दूसरे की कंगाली में पानी मिलाकर फेटते रहे। वैसे भी गरीब का आटा हमेशा गिला रहता है। आटे को जो लीटर में खरीदते हैं कंगाली तो उन्हें पता है। आपको क्या पता है कि कंगाली में आटा कैसे गिला होता है। आप तो आम आदमी के आटे में सिर्फ पानी मिलाया है।