ललित गर्ग
भगवान श्रीकृष्ण भक्ति में सराबोर भक्तों की लम्बी शृंखला में नरसी मेहता का नाम सर्वोपरि है। उनकी निश्छल और चरम भक्ति इतनी प्रभावी रही है कि श्रीकृष्ण से सीधे सम्पर्क में रहे, उनका उनके साथ सीधा संवाद होता था। उनके भक्ति रस से आप्लावित भजन आज भी जनमानस को ढांढस बंधाते हैं, धर्म का पाठ पढ़ाते हैं और जीवन को पवित्र बनाने की प्रेरणा देते हैं। उनके भजनों में जीवंत सत्यों का दर्शन होता है। जिस प्रकार किसी फूल की महक को शब्दों में बयां करना कठिन है, उसी प्रकार गुजराती के इस शिखर संतकवि और श्रीकृृष्ण-भक्त का वर्णन करना भी मुश्किल है। उनकी भक्ति इतनी सशक्त, सरल एवं पवित्र थी कि श्रीकृष्ण को अनेक बार साक्षात प्रकट होकर अपने इस प्रिय भक्त की सहायता करनी पड़ी।
नरसी मेहता की भक्ति के अनेक चमत्कारी किस्से हैं। महान् संतकवि नरसी का जन्म 15वीं शताब्दी में सौराष्ट्र के एक नागर ब्राह्मण परिवार में हुआ था। प्रतिवर्ष 19 दिसम्बर को उनके भक्त उनका जन्मदिन भव्य एवं भक्तिमय तरीके से मनाते हैं। उनके पिता का नाम कृष्णदास और माता का नाम दयाकुंवर था। बचपन में ही माँ बाप स्वर्गवासी हो गये थे। बालक नरसी आरंभ में गूंगे थे। आठ वर्ष के नरसी को उनकी दादी एक सिद्ध महात्मा के पास लेकर गई। महात्मा ने बालक को देखते ही भविष्यवाणी की कि भविष्य में यह बालक बहुत बड़ा भक्त होगा। जब दादी ने बालक के गूंगे होने कि बात बताई तो महात्मा ने बालक के कान में कहा कि बच्चा! कहो ‘राधा-कृष्ण’ और देखते ही देखते नरसी ‘राधा-कृष्ण’ का उच्चारण करने लगा। बालक नरसी बचपन से ही साधु-संतों की सेवा किया करते थे और जहां कहीं भजन-कीर्तन होता था, वहीं जा पहुंचते थे। रात को भजन-कीर्तन में जाते तो उन्हें समय का ख्याल न रहता। रात को देर से घर लौटते तो भाभी की प्रताड़ना सुननी पड़ती।
नरसी मेहता ने ‘वैष्णव जन तो तेने कहिए’ भजन में एक बात अच्छी प्रकार से कह दी है। ‘पर दुःखे उपकार करे’ कह कर भजन में रुक गए होते, तो वैष्णव जनों की संख्या बहुत बढ़ जाती है। ‘पर दुःखे उपकार करे तोए मन अभिमान न आणे रे“ कह कर हम सब में छिपे सूक्ष्म अहं को विगलित करने की चेतावनी दी गई है। उपकार का आनन्द अनुभव करना है तो आपने जो किया उसे जितनी जल्दी हो भूल जाएं और आपके लिए किसी ने कुछ किया, उसे कभी न भूलें। यह भजन राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का प्रिय भजन है। यह भजन ही नहीं, भक्त नरसी मेहता के भावों और विचारों का भी गांधी पर गहरा प्रभाव था। प्रायः ऐसा माना जाता है कि अस्पृश्यता से पीड़ित लोगों के लिए हरिजन शब्द पहली बार गांधीजी ने प्रयोग किया था, लेकिन वास्तविकता यह है कि इस शब्द का पहली बार उपयोग नरसी मेहता ने ही किया था। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान यह भजन जन-जन की जुबान पर था। न केवल यह भजन बल्कि उनकी हर भक्ति रचना इतनी सशक्त, सुरूचिपूर्ण है कि उससे न केवल आध्यात्मिक बल्कि मानसिक तृप्ति मिलती है। उनके भजनों में गौता लगाने पर शक्ति एवं गति पैदा होती है, सच्चाइयों का प्रकाश उपलब्ध होता है, जो हममें सच्चा संकल्प और कठिनाइयों पर विजय पाने की सच्ची दृृढ़ता एवं साहस देता है। वे ईश्वर से सम्पर्क के सूत्रधार थे। स्वयं परमात्मा नहीं थे, पर परमात्मा से कम भी नहीं थे। उन्होंने जन-जन को सांसारिक आकर्षण रूपी राग को मिटाकर ईश्वर के प्रति अनुरागी बनाया।
छोटी अवस्था में ही नरसी का विवाह माणिकबाई नामक किशोरी के साथ कर दिया गया। माणिकबाई को भी अनेक तरह की प्रताड़नाएं झेलनी पड़ी। विवाह के कुछ दिन बाद ही उनके पुत्र शामल का देहांत हो गया। बेटी ससुराल चली गई। अब माणिक अकेली रह गईं। नरसी तो भजन करते रहते और माणिक घर चलाती। घर में आये साधु-संतों की सेवा में ही उसका समय बीतता। एक दिन वह भी इस संसार को छोड़कर अपने पति के चरणों का ध्यान करती हुई चल बसीं। नरसी अब एकदम मुक्त हो गये। उन्होंने कहा, ‘अच्छा हुआ, यह झंझट भी मिट गया। अब सुख से श्रीकृष्ण का भजन करेंगे। नरसी भक्त थे, सरल थे, सबका भला चाहते थे और साधु-संतों की सेवा करते रहते थे, पर लोग उन्हें शांति से भजन-कीर्तन नहीं करने देना चाहते थे। वे उन्हें तंग करते थे, चिढ़ाते थे और तरह-तरह से परेशान करते और उनके बारे में तरह-तरह की बातें कहते थे, नरसी पर उन बातों का कोई असर नहीं होता। कहते हैं कि पिता के श्राद्ध के दिन वे घी लेने बाजार गए, वहीं कीर्तन में रम गए। ऐसे जमे कि घर में श्राद्ध, घी और भोजन के लिए बुलाए लोगों को भूल गए। तब भक्तों की विपदा हरने वाले भगवान श्रीकृष्ण को स्वयं नरसी का रूप रखकर उनके घर जाना और श्राद्ध का काम करना पड़ा। नरसी जब घर लौटे तब तक ब्राह्मण खा-पीकर जा चुके थे। नरसी के जीवन में ऐसी अनेक घटनाएं घटी, जहां पर यह महसूस किया गया कि भगवान श्रीकृष्ण उनकी मदद करने स्वयं चले आते थे।
नरसी का जीवन अलौकिक घटनाओं से भरा हुआ है। कहा जाता है कि वह जो करताल बजाते थे, वह भी भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं उनको दी थी। भगवान स्वयं उनकी पुत्री की शादी में मामा बन कर आए थे। नानी बाई का मायरा जगत प्रसिद्ध एवं भाव विह्वल करने वाली घटना है। उनकी कृष्ण-भक्ति इतनी अधिक थी कि जब धनाभाव में उनकी इज्जत जाने की नौबत आ जाती थी तो भगवान श्रीकृष्ण स्वयं कोई अवतार लेकर उन्हें बचाने उसी प्रकार आते थे, जिस प्रकार वह द्रौपदी की इज्जत बचाने के लिए चीरहरण के समय आए थे।
नरसी भगत की चमत्कारी एवं विलक्षण घटनाओं से रू-ब-रू होने का लोगों को बार-बार अवसर मिला। वे इसके लिये पहचाने जाने लगे। एक बार कुछ यात्रियों के दबाव के कारण द्वारिका के लिये उन्होंने शामला गिरधारी के नाम से एक हंुडी लिखी। यात्री द्वारिका पहुंचकर सेठ शामला गिरधारी को ढूंढते-ढूंढ़ते थक गये, पर उन्हें इस नाम का व्यक्ति न मिला। बेचारे निराश हो गये। इतने में उन्हें शामला सेठ मिल गये। कहते हैं कि स्वयं द्वारिकाधीश ने ही शामला बनकर नरसी की बात रख ली थी। उस समय के बड़े-बडे़ लोग उनकी परीक्षा लेते थे, शिकायत करते एवं परेशान करते। जूनागढ़ के राजा के पास भी शिकायतें पहुंचती थी, लेकिन वे उन्हें नजरअंदाज कर देते। एक बार उनके मन में भी आया कि नरसी की परीक्षा लेनी चाही। राजमहल में विष्णु का मंदिर था। राजा ने आज्ञा दी कि उस मंदिर के सभा-मंडप में नरसी बैठें और भजन-कीर्तन करें। मंदिर के भीतरी भाग में, जहां मूर्ति थी, ताला लगा रहेगा और पहरा रहेगा। यदि नरसी भगत के कीर्तन से प्रसन्न होकर विष्णु भगवान अपने गले की माला सबेरे तक उनके गले में डाल देंगे तो राजा उनको सच्चा भगत मानेंगे। जब तक यह परीक्षा पूरी नहीं हो जायेगी, नरसी महल के बाहर न जा सकेंगे। लेकिन नरसी का प्रिय राग केदारा, जिसको उनके मुख से सुनकर भगवान प्रसन्न होते थे, वही राग गाकर भगवान की स्तुति की। भगवान प्रसन्न हुए और सवेरा होते-होते भगवान विष्णु की मूर्ति के गले की माला नरसी के गले में प्रसाद रूप बनकर शोभा देने लगी।
नरसी बड़े सरल थे। नम्रता की मूर्ति थे। किसी के भी भले-बुरे से उन्हें कोई सरोकार न था। संसार से विरक्त थे, परंतु दिल बड़ा कोमल था। ऊंच-नीच का भाव उनके मन में कभी नहीं आया। वह ब्रह्म और माया की ‘अखंड रासलीला’ के भावों को अपनी मधुर वाणी में सदा गाते थे और कृष्ण-भक्ति का प्रचार करते थे। उन्होंने ब्रह्म और माया का भेद नहीं किया। वह कहते थे, ‘ब्रह्म लटकां करे ब्रह्मपासे’- माया भी ब्रह्म का ही रूप है। सच यह है कि राधा कृष्ण एक रूप हैं। उनमें कोई खास भेद नहीं। ब्रह्मलीला अथवा राधा-कृष्ण का जो अखंड रास चल रहा है, उसी से सारी दुनिया का यह खेल बना हुआ है। बिना जीव के राधा-कृष्ण या ब्रह्ममाया का मिलन या उनकी एकता का अनुभव कहां और कैसे किया जा सकता है? माया में फंसे अज्ञानी जीवों की बात दूसरी है। जो भक्त हैं, वे अपनी सच्ची स्थिति का अनुभव करते हैं, क्योंकि उनका अंतःकरण निर्मल होता है, पवित्र होता है। नरसी ऐसे ही भक्त थे, ज्ञानी थे। वे भारतीय आध्यात्मिक एवं धार्मिक जगत के भक्त सम्राट थे, उनकी जैसी भक्ति इतिहास की विरल घटना है। यही कारण है कि भगवान की सेवा और भजन-कीर्तन करते-करते अंत में वह उन्हीं के स्वरूप में मिल गए। ऐसे महान् एवं सच्चे भक्त की जयन्ती पर हम उन्हें हार्दिक भावांजलि समर्पित करते हैं।