विजय गर्ग
भारत, एक बहुभाषी राष्ट्र, में भाषा केवल संचार का माध्यम नहीं, बल्कि सांस्कृतिक पहचान, परंपरा, और सामुदायिक अस्मिता का प्रतीक है। ‘भाषा बनाम भारतीयता’ का विषय भारत की इस भाषाई विविधता और राष्ट्रीय एकता की भावना के बीच के जटिल संबंध को दर्शाता है। यह विवाद मुख्य रूप से एक भाषा को राष्ट्र की पहचान के रूप में स्थापित करने की मांग और क्षेत्रीय भाषाओं के संरक्षण की आवश्यकता के इर्द-गिर्द घूमता है।
भाषाई विविधता: भारत की शक्ति और पहचान
भारत का संविधान अपनी आठवीं अनुसूची में 22 भाषाओं को मान्यता देता है, जिनमें हिंदी, तमिल, बंगाली, मराठी, कन्नड़, तेलुगु, आदि शामिल हैं। यह भाषाई विविधता देश की सबसे बड़ी ताकत है, जो भारत की अनूठी “विविधता में एकता” की भावना को पोषित करती है।
सांस्कृतिक प्रतीक: प्रत्येक भाषा अपने साथ एक विशिष्ट साहित्य, लोक कला, और जीवन शैली लेकर आती है, जो भारतीय संस्कृति के भव्य ताने-बाने को बुनती है।
क्षेत्रीय अस्मिता: किसी क्षेत्र के निवासियों के लिए उनकी मातृभाषा उनकी पहचान का एक अभिन्न अंग होती है। मातृभाषा का संरक्षण उनकी क्षेत्रीय अस्मिता को बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण है।
राजभाषा बनाम राष्ट्रभाषा: हिंदी का दर्जा
यह बहस अक्सर हिंदी के दर्जे को लेकर केंद्रित होती है:
राजभाषा का दर्जा: भारतीय संविधान के अनुच्छेद 343 के अनुसार, हिंदी को राजभाषा (Official Language) का दर्जा प्राप्त है। यह मुख्य रूप से प्रशासनिक और सरकारी कार्यों के लिए इस्तेमाल की जाती है।
राष्ट्रभाषा नहीं: भारत की कोई आधिकारिक राष्ट्रभाषा नहीं है। संविधान में सभी भाषाओं को समान सम्मान दिया गया है।
विवाद: हिंदी को पूरे देश में अनिवार्य बनाने या उसे राष्ट्रभाषा घोषित करने की मांगें समय-समय पर उठती रही हैं। हिंदी-भाषी राज्यों में इसे राष्ट्रीय एकता के प्रतीक के रूप में देखा जाता है, जबकि कई गैर-हिंदी भाषी राज्यों (विशेषकर दक्षिण भारत) में इसे क्षेत्रीय भाषाओं और संस्कृति पर थोपने के प्रयास के रूप में देखा जाता है।
भारतीयता का सार और भाषा का रोल
भारतीयता किसी एक भाषा तक सीमित नहीं है। यह एक समावेशी विचार है जो विभिन्न संस्कृतियों, परंपराओं और भाषाओं को गले लगाता है।
अखंडता का आधार: भारत की एकता उसकी विविधता के सम्मान में निहित है। किसी एक भाषा को अनिवार्य बनाना या थोपना क्षेत्रीय भावनाओं को ठेस पहुँचा सकता है और यह राष्ट्रीय एकता को खतरे में डाल सकता है, जैसा कि 1950 और 60 के दशक में भाषाई विवादों के इतिहास से स्पष्ट होता है।
संपर्क भाषा: जबकि कुछ लोग हिंदी को संपर्क भाषा के रूप में देखते हैं, अन्य लोग अंग्रेजी को एक तटस्थ माध्यम मानते हैं जो विभिन्न भाषाई समूहों के बीच एक समान मंच प्रदान करता है और वैश्विक अवसरों से जोड़ता है।
गांधी और निज भाषा: महात्मा गांधी ने कहा था कि “राष्ट्र भाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है”, पर इसका तात्पर्य यह नहीं था कि यह अन्य भारतीय भाषाओं के बलिदान पर हो। कवि भारतेंदु हरिश्चंद्र की प्रसिद्ध पंक्तियाँ— “निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल। बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।”—मातृभाषा के महत्व को दर्शाती हैं, जो ज्ञान और प्रगति का आधार है।
निष्कर्ष: संतुलन और सह-अस्तित्व
‘भाषा बनाम भारतीयता’ का संघर्ष वास्तव में आत्मीयता और आत्मसम्मान का सवाल है। भारतीयता को बनाए रखने के लिए किसी एक भाषा की प्रधानता नहीं, बल्कि सभी भारतीय भाषाओं के सह-अस्तित्व और सम्मान की आवश्यकता है।
बहुभाषिकता को प्रोत्साहन: शिक्षा में त्रिभाषा सूत्र जैसे नीतियों को प्रभावी ढंग से लागू करना, जो मातृभाषा/क्षेत्रीय भाषा, हिंदी (गैर-हिंदी राज्यों में), और अंग्रेजी को बढ़ावा देता है, एक संतुलित दृष्टिकोण हो सकता है।
सांस्कृतिक संरक्षण: भाषाई और सांस्कृतिक विविधता का संरक्षण ही भारतीयता को मजबूत करता है, इसे कमजोर नहीं करता। भारत की सच्ची पहचान उसकी अनेकता में एकता में है, जहाँ प्रत्येक भाषा और संस्कृति राष्ट्रीय चेतना में अपना विशिष्ट योगदान देती है।
आज के युग में, जब अंग्रेज़ी का प्रभाव बढ़ा है, और शहरी जीवन में क्षेत्रीय भाषाओं का प्रयोग घट रहा है, तब यह प्रश्न उभरता है कि क्या भारतीयता को भाषा से जोड़ा जाना चाहिए? क्या अंग्रेज़ी बोलने वाला भारतीय अपनी भारतीयता से दूर हो जाता है? शायद नहीं। भारतीयता केवल भाषा में नहीं, बल्कि सोच, व्यवहार, और मूल्यों में बसती है — दूसरों के प्रति सम्मान, विविधता को स्वीकारना, और ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की भावना ही सच्ची भारतीयता है।
फिर भी, भाषा हमारी पहचान का आधार है। जब हम अपनी मातृभाषा को सम्मान नहीं देते, तो धीरे-धीरे हमारी सांस्कृतिक जड़ें कमजोर पड़ने लगती हैं। भाषा केवल संवाद का माध्यम नहीं, बल्कि एक भावनात्मक और सांस्कृतिक धरोहर है। मातृभाषा में सोचने और सृजन करने से व्यक्ति अपने परिवेश से गहराई से जुड़ता है।
इसलिए “भाषा बनाम भारतीयता” कोई संघर्ष नहीं, बल्कि एक सह-अस्तित्व का रिश्ता है। हर भारतीय भाषा अपने में भारतीयता का अंश लिए हुए है। भारतीयता किसी एक भाषा की मोहताज नहीं, बल्कि हर भाषा की धड़कनों में बसी हुई है।
अंततः, सच्चा भारतीय वही है जो हर भाषा का सम्मान करे, और यह समझे कि भारत की असली शक्ति उसकी भाषाई विविधता में ही छिपी है — वही विविधता जो हमें बाँटती नहीं, बल्कि जोड़ती है।





