क्या नरेंद्र मोदी-जादू आगामी पाँच राज्यों के चुनावों में चलेगा?

प्रो. नीलम महाजन सिंह

मिज़ोरम में 7 नवंबर को मतदान; 17 नवंबर को मध्य प्रदेश; छत्तीसगढ़ में 7 व 17 नवंबर को दो चरणों में; 23 नवंबर को राजस्थान और 30 नवंबर को तेलंगाना; पाँचों राज्यों में चुनाव होने वाले हैं। वोटों की गिनती 3 दिसंबर को होगी। हाल ही के विधान सभा चुनावों में, गुजरात के परिणाम ने प्रधान मंत्री नरेंद मोदी की राजनीति पर व्यक्तिगत छाप छोड़ी है। विपक्ष अपने को संयोजित करने में लगातार नाकामयाब रहा है। अब (I.N.D.I.A.) इ.न.डि.या. विपक्षी संगठन में भी मतभेद आ रहे हैं। सत्ता की प्यास व वैचारिक प्रतिबद्धता को देखते हुए, इन मुद्दों को भारतीय जनता पार्टी को गंभीरता से लेने की अधिक आवश्यकता है। ‘अब की बार मोदी सरकार’ – 2024 के लोकसभा चुनावों के लिए ये चुनाव बहुत-बहुत महत्वपूर्ण है। सत्य को प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती। जो जीता वो ही सिकंदर ! मिज़ोराम में जनजातिय महत्व है। सोनिया गांधी भी स्वयं प्रचार कर रहीं हैं। नरेंद्र मोदी सरकार की गुजरात विधानसभा चुनावों में, भाजपा की ऐतिहासिक जीत में कुछ तथ्यों को समझना आवश्यक है। किसी भी परिदृश्य में, गुजरात में भाजपा, हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस व दिल्ली में ‘आम आदमी पार्टी’ की जीत को मिश्रित संकेत भेजने वाले मतदाताओं के रूप में पढ़ा जा सकता है। लेकिन चर्चा नरेंद्र मोदी के गृह राज्य में ‘भगवा पार्टी’ की अभूतपूर्व जीत पर केंद्रित हो गई ! इस मिश्रित जीत के बाद की व्याख्या इस रूप में की जाएगी कि इसके राजनितिक संकेत क्या हैं? उधर दिल्ली में आम आदमी पार्टी ‘शराब घोटाले’ को लेकर, न्यायिक संकट में है। मनीष सिसोदिया व सत्येंद्र जैन तो जेल से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं! रूझानों में निरंतरता व बदलाव दिख रहा है। गृह मंत्री अमित शाह ने यह घोषणा भी कर दी है कि राज्य चुनावों में भाजपा विजयी होगी। कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री माधव सिंह सोलंकी ने 1985 के चुनावों में ‘भव्य-पुरानी पार्टी’ के लिए सबसे बड़ी जीत हासिल की, जो पूर्व प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी की हत्या की पृष्ठभूमि में हुई थी। कांग्रेस को 149 सीटों पर जीत मिली थी। वह अब इतिहास हो चुका है। नरेेंद्र मोदीे के नेतृत्व में, गुजरात ने लगभग 53% वोट शेयर के साथ भाजपा को 156 सीटें दी हैं। अधिकांश हाई-प्रोफाइल कांग्रेस नेता इस प्रक्रिया में हार गए। 20 से कम सीटें और लगभग 40% से 26% की गिरावट के साथ, राज्य में कांगेस पार्टी का महत्व और भी कम हो गया है। यहां तक ​​​​कि नइ नवेली, ‘आम आदमी पार्टी’, जिसे लगभग 13% वोट मिले, प्राथमिक विपक्षी दल की भूमिका बदलने में आइ। मध्य प्रदेश में, 78 वर्षीय दिग्विजय सिंह की कोई सार्थकता नहीं है। वे कांग्रेस के लिए नकारात्मक प्रभाव छोड़ रहे हैं। साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर ने 10 वर्ष तक मुख्य मंत्री रहे, दिग्विजय सिंह को 2019 के लोकसभा चुनाव में; 3,64,822 वोटों से पराजित कर धूल चटाई थी। फिर कॉंग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी ने ‘डिग्गी राजा’ को राज्य सभा की सदस्यता दे दी। कॉंग्रेस ने उस व्यक्ती को, जो लगभग पौने चार लाख वोटों से हार गया हो, उसे राज्य सभा में क्यों सीट दी? यह शर्मनाक बात है कि जिस नेता को भोपाल की जनता ने करारी हार दी, उसे सोनिया गाँधी ने क्यों ‘शॉर्ट कट’ दिया? मध्य प्रदेश में अभी भी दिग्विजय सिंह ही सीटें बांट रहे हैं। क्या 77 वर्षीय कमल नाथ, कॉंग्रेस का मुख्य मंत्री चेहरा हैं? यद्यपि कि ज्योतिरादित्य सिंधिया प्रभावशाली प्रचारक होंगें, परंतु क्या वे मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बनेंगे, यह कहना कठिन है। भाजपा की चुनाव मशीनरी की ताकत नतीजों की ओर प्रदर्शित रहती है। 27 साल के निर्बाध शासन से उत्पन्न ‘थकान’ व यहां तक ​​कि ‘सत्ता विरोधी लहर’ को भांपते हुए, भाजपा ने एक साल से अधिक समय पहले, मज़बूत सुधारात्मक उपाय शुरू कर दिये थे। विभिन्न समुदायों का अधिक से अधिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने और अपने काडर की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए भाजपा हर कार्य में प्रतिबद्धता प्रदर्शित कर रही है। गुजरात में जीतू वाघानी को भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष के पद से हटा कर सी.आर. पाटिल को नियुक्त किया, जिन्हें एक सख्त प्रशासक व सक्षम संगठनकर्ता के रूप में जाना जाता है। उनकी नियुक्ति के साथ, भाजपा दक्षिणी गुजरात, विशेष रूप से सूरत – जहां पाटिल ताल्लुकात हैं, में व्यापारियों और व्यापारियों के बीच असंतोष को शांत करने में भाजपा सफल रही। जैसे कि इस तरह के कदम पर्याप्त नहीं थे, नरेंद्र मोदी ने खुद चुनावों के लिए 36 रैलियों को संबोधित किया। जबकि गृह मंत्री अमित शाह चुनावों को माइक्रोमैनेज करने में पूरी तरह से लगे हुए थे। उनके पन्ना प्रमुख, भाजपाइयों का श्वास हैं। भगवा पार्टी ने हिमंत बिस्वा सरमा व योगी आदित्यनाथ जैसे नेताओं व भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों को इन पाँच राज्यों के चुनावों में प्राचार हेतु उतारा है।सभी राजनीतिक दलों ने गंभीरता दिखायी है। ‘हिंदुत्व’ का प्रयोग तो हो ही रहा। इसके विपरीत, कांग्रेस ने प्राथमिक विपक्षी पार्टी के रूप में अच्छी लड़ाई लड़ने में गंभीरता दिखाई है। कॉंग्रेस नेताओं ने स्थानीय मुद्दों पर चुनाव लड़ने व उम्मीदवारों की सद्भावना पर निर्भरता का प्रयास किया है। यदि कांग्रेस पार्टी पिछले पांच वर्षों में ज़मीनी स्तर पर सक्रिय रही होती तो अभियान एक हद तक प्रभावी काम कर सकता था। कई दल एक उत्साही लड़ाई का नेतृत्व कर रहे हैं व राज्यों में उपेक्षित चिंताओं को व्यक्त कर सकते हैं। अभियान में विभिन्न जातियों व समुदायों, युवा व वृद्धों में, मतदाताओं को उत्साहित किया जा रहा है। लेकिन अब ‘विशाल-भाजपा’ को हराने के लिए सभी राजनीतिक दलों को मेहनत करनी होगी। ‘हिंदुत्व’ की प्रमुख राजनीतिक रणनीति, शायद तेलंगाना व मिज़ोराम में प्रभावी नहीं हो, ऐसा सम्भव है। हिंदुत्व अभी तक सबसे प्रभावशाली राजनीतिक रणनीति रहीं है। मंडल आधारित राजनीति का भी आयोजित रूप से प्रयोग होगा। कांग्रेस ने भाजपा के ‘हिंदुत्व व विकास’ के दोहरे मुद्दों का मुकाबला करने के लिए ओ.बी.सी. दलित, आदिवासी व मुस्लिम समुदायों को एक साथ लाकर राज्यों में अपने ‘सोशल इंजीनियरिंग फॉर्मूले’ को वापिस लाने का प्रयास किया है। गुजरात के नतीजे दिखाते हैं, कि आदिवासियों के लिए आरक्षित 27 सीटों पर बीजेपी ने ठोस पैठ बना ली। इसने 2017 में केवल 9 के मुकाबले 24 सीटें जीतीं। इसी तरह, पहली बार, भाजपा अहमदाबाद के दरियापुर को भी जीतने में कामयाब रही, जिसमें 65% मुस्लिम आबादी है। इस सीट को कांग्रेस का गढ़ माना जाता था। ठाकुर समुदाय, जो कांग्रेस का पारंपरिक समर्थक रहा है, भी काफी हद तक भाजपा की ओर स्थानांतरित हो गया है, जबकि दलित मतदाताओं ने कई जगहों पर ‘आप’ को पसंद किया। सामाजिक आंदोलनों व हज़रों आदिवासी, गांवों से विस्थापित न हों, इस ओर ध्यान रखना पड़ेगा। स्पष्ट रूप से कांग्रेस का ‘सोशल इंजीनियरिंग फॉर्मूला’; मतदाताओं को पेश करने के लिए सुसंगत दृष्टि व विचारधारा का प्रयोग किया जा रहा है। विपक्षी दलों ने किसी भी पारंपरिक रणनीति पर अपना प्रभुत्व मज़बूत नहीं किया है। कांग्रेस के राज्यव्यापी नेतृत्व की कमी व ‘आप’ की संगठनात्मक कमज़ोरी ने भगवा पार्टी के लिए चीज़ों को आसान बनाया। नए राज्य-स्तरीय नेतृत्व को आकार देने में ‘ग्रैंड ओल्ड पार्टी’ की विफलता बहुत महंगी साबित हुई। यह देखते हुए कि गुजरात की अभूतपूर्व जीत ने भाजपा को अपने ‘हिंदू-धर्म’ को आगे बढ़ाने के लिए और अधिक प्रोत्साहित किया है। 2024 के संसदीय चुनाव से पहले मुस्लिम ध्रुवीकरण की रणनीति हो रही है। पिछले नौ वर्षों में नरेंद्र मोदी सरकार व भाजपा ने धीरे-धीरे पूरे भारत में ‘हिंदुत्व व राष्ट्रवादी गौरव’ के मिश्रण’ की ओर अग्रसारित हैं। अहमदाबाद के मुसलमान अब दंगों का आह्वान करते हुए अल्पसंख्यक चिंताओं को खारिज करते हुए कहते हैं कि “अब इसके साथ जीना सीख लिया है” तब भी वे ‘मतदाता-निर्भीकता’ पसंद करते हैं। संकेत यह भी हैं कि मतदाता उसी पार्टी को वोट देने के लिए अधिक इच्छुक हैं जो विचारधारा के बावजूद ‘बोल्ड व हार्ड-हिटिंग नेतृत्व’ के रूप में सामने है। राजनैतिक विश्लेषकों की अपील व उसके बाद का विकास, उसके तीखे व ऊर्जावान अभियान में निहित है। कांग्रेस के ‘चुपचाप’ व कमज़ोर प्रचार से उसे नुकसान होगा। नतीजे इस धारणा की ओर केंद्रित होंगें कि भाजपा को तब तक मात नहीं दी जा सके जब तक कि वे भगवा पार्टी के प्रतिबद्ध मतदाताओं को तोड़ा न पाये। हालांकि बीजेपी के लिए गुजरात में जीत का लुत्फ उठाने का मौका है, लेकिन उन्हें इस बात को भी सोचना होगा कि हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, कर्नाटक में क्या कमियाँ रह गईं ? दक्षिणी द्रविड़ नीतियां तेलांगना चुनाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगीं। इन पाँच राज्यों के चुनाव परिणाम, आगामी 2024 की पृष्टभूमि में निर्णायक होंगें।

(वरिष्ठ पत्रकार, विचारक, राजनैतिक समीक्षक, दूरदर्शन व्यक्तित्व, सॉलिसिटर फॉर ह्यूमन राइट्स संरक्षण व परोपकारक)