ललित गर्ग
चीन अपनी दोगली नीति, षडयंत्रकारी हरकतों एवं विस्तारवादी मंशा से कभी बाज नहीं आता। वह हमेशा कोई ऐसी कुचेष्टा करता ही रहता है जिससे भारत चीन बॉर्डर पर अक्सर तनाव रहता है। ब्रिक्स समिट में जगी भारत-चीन के सामान्य संबंधों की आस आकार लेने से पहले ही धूमिल हो गयी है। नई दिल्ली में होने वाले जी-20 शिखर सम्मेलन से पहले भारत-चीन के संबंधों में सामंजस्य बैठाने के प्रयास चीन के नापाक इरादों से जटिल ही बने रहने वाले हैं। चीन की ओर से जारी किए गए ताजा नक्शे में अरुणाचल प्रदेश को अपना हिस्सा बताकर चीन एक बार फिर सीमा विवाद को बढ़ाने के साथ भारत को उकसाने वाली कार्रवाई में जुटा है। हालांकि भारत ने दो टूक जवाब देते हुए साफ कहा है कि अरुणाचल प्रदेश भारत का अभिन्न अंग है और यह चीनी दुष्प्रचार के सिवाय कुछ नहीं है। चीन की इस हरकत ने यह साफ कर दिया है कि उससे संबंध सुधारने की भारत की तरफ से कितनी ही पहल हो जाए, वह सुधरने वाला नहीं है।
दरअसल, सीमाओं को लेकर नित नए विवादास्पद तथ्य लाना चीन की फितरत में शामिल है। अरुणाचल प्रदेश ही नहीं, अक्साई चिन, ताइवान और विवादित दक्षिण चीन सागर पर भी चीन अपना दावा जताता रहा है। इससे पहले भी शातिर और चालबाज चीन ने अप्रेल में जारी अपने नक्शे में पहले चुपके से अरुणाचल प्रदेश के गांवों के नाम बदल दिए थे, जिसकी भारत ने निंदा की थी। अब दक्षिणी हिंद महासागर में 19 स्थानों के नाम बदले हैं। चीन की तरफ से दक्षिण हिंद महासागर में 19 तलों के नाम बदलने की हिमाकत की गई है, वे भारतीय प्रायद्वीप से करीब 2000 किलोमीटर दूर हैं। चीनी मीडिया ने इसे बीजिंग का ‘सॉफ्ट पॉव्र‘ प्रोजेक्शन कहा है। चीन की ओर से की गई यह कार्रवाई भारत की संप्रभुता और हिंद महासागर के इलाके में भारतीय प्रभाव पर सीधा दखल है। एक महीने के भीतर शी जिनपिंग की भारत की संप्रभुता के साथ छेड़छाड़ की यह दूसरी हिमाकत है। इसे चीन के विस्तारवादी रवैये और हिंद क्षेत्र में चीन की बढ़ती दखल के रूप में देखा जा रहा है।
पिछले पांच साल में चीन नाम बदलने का यह दुस्साहस तीन बार कर चुका है। इस साल अप्रेल से पहले उसने 2021 में 15 और 2017 में छह जगहों के नाम बदले थे। हालांकि तब भी भारत ने विरोध दर्ज कराते हुए नए नामों को सिरे से खारिज कर दिया था। चीन का यह नया नक्शा ब्रिक्स समिट में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एवं राष्ट्रपति शी जिनपिंग की मुलाकात के बाद एवं नई दिल्ली में अगले माह की शुरुआत में ही होने वाले जी-20 शिखर सम्मेलन से पहले सामने आया है। समूची दुनिया चीन के विस्तारवादी रवैये और दूसरे देशों की जमीन को कब्जाने की नीयत को अच्छी तरह देखती और समझती है। चीन भरोसे करने के काबिल न पूर्व में रहा है और न भविष्य में होने की संभावनाएं हैं। भारत के मामले में चीन का रवैया सदैव शत्रुतापूर्ण एवं उसके क्षेत्रों पर अनाधिकृत कब्जाने का ही रहा है। चीन की पिछली हरकतों से भी यह साफ हो गया है कि चीन कभी भी भारत से मित्रवत संबंध बनाने के प्रयासों का साथ देने वाला नहीं है।
भारत एवं चीन दोनों देशों के बीच संबंधों में आने वाली तल्खी की बड़ी वजह भी चीन की नीयत में खोट, उच्छृंखलता एवं अनुशासनहीनता ही है। चीन ने एक बार फिर अपनी इस हरकत से भारत के प्रति शत्रुता को ही जाहिर किया है। भारत के साथ चीन का बर्ताव हमेशा दोगला एवं द्वेषपूर्ण रहा है। चीन ने विस्तारवादी नीतियों के तहत जैसी गतिविधियां चला रखी हैं उनसे भारत ही नहीं, बल्कि समूची दुनिया को चौकन्ना रहने की जरूरत है। राजनीतिक रूप से हमारे यहां विभिन्न दल भले ही एक-दूसरे के विरोधी हों, पर चीन को लेकर भारत से उठने वाली आवाज एक ही होनी चाहिए। चीन के मनमाने रवैये को पश्चिमी देश अच्छे से महसूस भी कर रहे और उनके पक्ष-विपक्ष के नेता एक सुर में उसकी हरकतों के खिलाफ आवाज भी उठा रहे। इसके विपरीत भारत में अलग स्थिति है। अपने देश के कई नेता चीनी सेना के अतिक्रमणकारी रवैये को लेकर मोदी सरकार को तो कठघरे में खड़ा करते हैं लेकिन चीन के प्रति एक शब्द भी नहीं बोलते। हाल ही में राहुल गांधी ने कथित तौर पर लद्दाख की जमीन पर चीन का कब्जा होने का जो दावा किया गया है, वह जल्दीबाजी में बिना सोच के दिया गया गुमराह करने वाला बयान था, उससे यही पता चलता है कि वे चीन जैसे शत्रु राष्ट्र का मूक समर्थन करते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि भारत के सबसे बड़े दुश्मन राष्ट्र की वे तरफदारी करते एवं चीन के एजेंडे को बल देते नजर आते हैं। उनका यह रवैया नया नहीं, लेकिन यह देश के लिये घातक है। यह भूला नहीं जा सकता कि डोकलाम विवाद के समय वह भारतीय विदेश मंत्रालय को सूचित किए बिना किस तरह चीनी राजदूत से मुलाकात करने चले गए थे। क्या इससे अधिक गैरजिम्मेदाराना हरकत और कोई हो सकती है? ऐसे ही सवालों में आज तक इस सवाल का जवाब भी नहीं मिला कि आखिर राजीव गांधी फाउंडेशन को चीनी दूतावास से चंदा लेने की जरूरत क्यों पड़ी?
राहुल को यह भी विस्मृत नहीं करना चाहिए कि जवाहरलाल नेहरू के समय चीन ने किस तरह पहले तिब्बत को हड़पा और फिर 1962 के युद्ध में ‘हिन्दी चीनी भाई-भाई’ का नारा जप कर भारत माता की 45,000 वर्ग किलोमीटर भूमि चीन को दे दी। आज जब भारत चीन के अतिक्रमणकारी एवं अति महत्वाकांक्षी रवैये के खिलाफ डटकर खड़ा है और उसे उसी की भाषा में जवाब दे रहा है तब राहुल गांधी एवं विपक्षी दलों के नेता जानबूझकर प्रधानमंत्री की एक सशक्त एवं विश्व नेता की छवि पर हमला करने के लिए उतावले रहते हैं। वह अंध मोदी विरोध के चलते सारी मर्यादाओं का अतिक्रमण कर जाते हैं। वह यह बुनियादी बात समझने के लिए तैयार नहीं कि जब रक्षा और विदेश नीति के मामलों में राजनीतिक वर्ग एक सुर में नहीं बोलता तो इससे राष्ट्रीय हितों को चोट ही पहुंचती है, इससे राष्ट्र कमजोर होता है। चीन एवं पाकिस्तान जैसे दुश्मन राष्ट्र इसी से ऊर्जा पाकर अधिक हमलावर बनते हैं।
अपनी आर्थिक शक्ति के नशे में चूर अहंकारी चीन अंतरराष्ट्रीय नियम-कानूनों को जिस तरह धता बता रहा है, उससे वह विश्व व्यवस्था के लिए खतरा ही बन रहा है। अब यह भी किसी से छिपा नहीं कि वह गरीब देशों को किस तरह कर्ज के जाल में फंसाकर उनका शोषण कर रहा है। चीन ने अंतरराष्ट्रीय कानूनों की अनदेखी कर जिस तरह अपने नए नक्शे में दक्षिण चीन सागर को भी शामिल कर लिया, वह उसकी उपनिवेशवादी मानसिकता का ही परिचायक है। चीन अपनी कुचेष्टाओं एवं करतूतों से भारत को उकसाना चाहता है लेकिन शायद चीन भूल गया है कि अब भारत 1962 वाला भारत नहीं है, यह नया भारत है और आज का भारत चीन को मिट्टी में मिलाने की ताकत रखता है। भारत की रणनीति साफ है, स्पष्ट है। आज का भारत समझने और समझाने की नीति पर विश्वास करता है लेकिन अगर हमें आजमाने की कोशिश होती है तो जवाब भी उतना ही प्रचंड देने में वह समर्थ हैं। हम दुश्मन को घर में घुसकर मारते हैं। पूरा देश जानता है कि राष्ट्र के स्वाभिमान, राष्ट्र की अस्मिता, राष्ट्र की विरासत, राष्ट्र के गौरव पर हमला करने वालों को भारत मुंहतोड़ एवं करारा जवाब देने में सक्षम है। भारतीय सेना में सरहदें बदल देने की क्षमता है, दुश्मनों को इरादों को ध्वस्त करने का मादा है इसलिये चीन अपने नक्शे में भले ही छेड़छाड़ करता रहे, लेकिन भारत की भूमि पर कब्जाने की उसकी मंशा अब कभी साकार नहीं होगी।