ललित गर्ग
कनाडा में रविवार को वहां के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो की मौजूदगी में खालसा दिवस समारोह के दौरान खालिस्तान समर्थक नारे लगाए जाने के बाद भारत सरकार जो सख्ती दिखाई है, वह आवश्यक एवं समयोचित कदम है। इस घटना पर भारत का चिंतित होना एवं कनाडा को चेताया जाना स्वाभाविक है। विदेश मंत्रालय में कनाडा के उप-उच्चायुक्त को तलब कर इस मामले में गहरी आपत्ति जताई गई है। कनाडा सरकार ने अपने राजनीतिक हितों के लिये अनेक बार भारत विरोधी घटनाओं में संदेहास्पद एवं विवादास्पद भूमिका का निर्वाह करते हुए अन्तर्राष्ट्रीय संबंधों की मर्यादाओं को धुंधलाया है। कनाडा की धरती से खालिस्तानी समर्थक अलगाववाद, कट्टरपंथ और हिंसा को बढ़ावा दिया जाता रहा है। इस तरह की घटनाओं से कनाडा में अपराध का माहौल बना हुआ है। इससे कनाडा के नागरिकों के लिए भी खतरा पैदा हो गया है। जिससे भारत में भी स्थितियां संकटपूर्ण बनी है। पिछले साल खुद ट्रूडो ने सार्वजनिक रूप से निज्जर हत्याकांड में भारत के शामिल होने का निराधार आरोप लगाया था। भारत के मांगने के बाद भी आज तक उनकी सरकार इस आरोप के पक्ष में कोई सबूत नहीं दे पाई है। जस्टिन ट्रूडो ने आरोप लगाकर दोनों देशों के बीच विवाद खड़ा कर दिया था। भारत ने आरोप को बेबुनियाद बताते हुए खारिज कर दिया था। इसके बाद से कनाडा और भारत के संबंधों में खटास आ गई और दोनों देशों के रिश्ते सुधरने की बजाय खतरनाक मोड़ पर पहुंच गये हैं।
रविवार के खालसा दिवस समारोह में न केवल खालिस्तान समर्थक नारे लगाए गए बल्कि ऐसे बैनर प्रदर्शित किए गए, जिनमें भारत-विरोध के त्रासद एवं राष्ट्र-विरोध के भ्रामक, झूठे एवं बेबुनियाद आरोप थे। अफसोस और चिंता की बात यह रही कि कनाडाई प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने तो इन सब भारत-विरोधी घटनाओं को रोकने की या इन्हें गलत बताने की कोई कोशिश की। इस पूरे मामले में ट्रूडो का व्यवहार आपत्तिजनक बना, दो देशों के बीच खटास घोलने वाला एवं राजनीतिक अपरिपक्वता का रहा। जिसे दोनों देशों के राजनयिक पैमाने पर उचित नहीं कहा जा सकता। इस तरह कनाडा अपने देश की राजनीतिक जरूरतों के चलते भारत के साथ अपने रिश्ते इस मोड़ पर ले आया हैं, जहां उनके बीच विश्वास, भरोसे, आपसी सहयोग और संवाद की कमी है, तो यह अकारण नहीं है।
भले ही लगभग आठ लाख कनाडाई सिखों की वहां की राजनीति में सक्रिय भागीदार हैं। सिख समुदाय की जरूरतों एवं उनके शांतिपूर्ण जीवन के लिये कनाडा सरकार की प्रतिबद्धता में कोई आपत्ति नहीं हैं। सिख समुदाय के मौलिक अधिकारों व स्वतंत्रता की रक्षा करने के वायदे यदि वहां की सरकार करती है तो अच्छी बात है। भले ही कनाडा सरकार सिखों के सामुदायिक केंद्रों, गुरुद्वारा समेत पूजास्थलों की सुरक्षा को और मजबूत करने के साथ भारत एवं कनाडा के बीच उड़ानें और रूट बढ़ाने को लेकर भारत के साथ नए समझौते करें, लेकिन इन स्थितियों के बीच खालिस्तानी अलगाववाद को प्रोत्साहन देना भारत के लिये असहनीय है। भारत बार-बार इस बात को दोहरा रहा है कि अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर इस तरह अलगाववादी और अतिवादी प्रवृत्तियों को बढ़ावा देना न केवल दोनों देशों के रिश्तों के लिए बल्कि खुद कनाडा के लिए भी खतरनाक है। भारत जिस तरह से लम्बे समय तक खालिस्तानी आतंकवाद को झेला है, कनाडा में इन तत्वों को प्रोत्साहन देकर कनाडा आतंकवादी गतिविधियों का केन्द्र बन सकता है, जो उसके लिए नुकसानदेह ही साबित होने वाला है।
निश्चित ही कनाडा में खालिस्तानी आतंकी फल-फूल रहे हैं। खालिस्तानी न केवल भारतीय राजनयिकों को धमका रहे हैं बल्कि हिंदू मंदिरों को भी निशाना बना रहे हैं। कनाडा की धरती पर हर किस्म के खालिस्तानी चरमपंथी ही नहीं पल रहे हैं बल्कि वहां भारत से भागे गैंगस्टर और नशे के तस्कर भी शरण पा रहे हैं। यही कारण है कि संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार परिषद में भारत ने कनाडा को जो खरी-खोटी सुनाई, वह इसलिए आवश्यक थी, क्योंकि वहां की ट्रूडो सरकार अपने भारत विरोधी रवैये से बाज नहीं आ रही है। वह जिस तरह खालिस्तानी अतिवादियों को संरक्षण दे रही है, उसकी मिसाल यदि कहीं और मिलती है तो वह पाकिस्तान में। कनाडा अपने भारत विरोधी रवैये के कारण पाकिस्तान सरीखा बनता जा रहा है। कनाडा अपने हितैषी एवं पडोसी देशों से दूरियां बना रहा है। खालिस्तान समर्थन एवं प्रोत्साहन के चलते कनाडा में फिलहाल कुछ भी ठीक नहीं चल रहा।
अपने देश के साथ दुनियाभर में वह आलोचकों के निशाने पर हैं। कनाडा में खालिस्तान समर्थकों पर नियंत्रण रखने में कथित नाकामी के चलते ट्रुडो को अनेक अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर विरोध का सामना करना पड़ रहा है। इसी के चलते जी-20 बैठक में उन्हें भारत और सदस्य देशों का ‘ठंडा’ रिस्पांस मिला। भारत में खास अहमियत नहीं मिलने से खिसियाए ट्रुडो को कनाडा के मीडिया ने भी आड़े हाथ लिया है।
ट्रुडो सरकार पर भारत के साथ रिश्तों को नुकसान पहुंचाने और व्यापार वार्ता के बारे में अंधेरे में रखने के आरोप भी लगे हैं। घरेलू राजनीतिक हितों के लिए ट्रुडो भारत के साथ लड़ाई मोल लेकर अपने देश का भारी आर्थिक नुकसान कर रहे हैं। यह सर्वविदित है कि भारत अब दुनिया की एक आर्थिक महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर है। कनाडाई में उत्पादित वस्तुओं के निर्यात और व्यापार में भारत की महत्वपूर्ण भूमिका है और दोनों देशों के बीच बढ़ते तनाव का असर यहां की इकोनॉमी पर पड़ रहा है। भारत की नाराजगी बेवजह नहीं है, क्योंकि कनाडा भारत के विरोध में लगातार सक्रिय हैं, कनाडा ने ही किसानों के आंदोलन के समर्थन में अतिश्योक्तिपूर्ण सहयोग होने दिया। जबकि दोनों देशों के संबंधों में प्रगति के लिए एक-दूसरे के प्रति सम्मान का भाव और आपसी भरोसा रहना जरूरी है।
खालिस्तान समर्थक गुरपतवंत सिंह पन्नू की हत्या की साजिश को लेकर अमेरिका में भी सवाल उठे थे। लेकिन अमेरिका ने इस मसले पर सार्वजनिक बयानबाजी करने के बजाय भारत सरकार से सीधी बातचीत की। भारत ने भी अमेरिकी सरकार की ओर से मुहैया कराए गए सबूतों को गंभीरता से लिया। इस मामले में एक उच्चस्तरीय जांच शुरू हुई। अच्छी बात यह भी है कि इस मामले को दोनों देशों के संबंधों के खटास का माध्यम नहीं बनने दिया। जांच के निष्कर्षों को दोनों देशों ने स्वीकार किया एवं बेवजह का विवाद खड़ा नहीं होने दिया। कनाडा को भी अमेरिका से कुछ सीखना चाहिए एवं निज्जर हत्याकांड में भारत की अगर कोई भूमिका है तो उसके सबूत भारत सरकार को देने चाहिए। कोरे आरोप लगाकर आपसी संबंधों को बिगाड़ने से परहेज करना चाहिए। अपनी भूमि का उपयोग भारत की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता के लिए खतरा पैदा करती गतिविधियों के लिये कत्तई नहीं करने देना चाहिए। बात कनाड़ा के साथ-साथ अन्य देशों पर भी लागू होती है जो अपने राजनीतिक हितों के लिये खालिस्तान समर्थक या अन्य भारत विरोधी आन्दोलनों को जगह देते हैं, लेकिन इन देशों ने भी समझा है और समझना ही होगा कि किसी देश के अन्दरूनी मामलों में दखलअंदाजी करना उनके लिये ही हानिकारक होने वाला है। भारत अब एक महाशक्ति है, कनाड़ा जैसे देशों की भारत-विरोधी गतिविधियों से भारत की सेहत पर कोई असर नहीं पडेगा।