ललित गर्ग
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने युवावस्था में अपनी डायरी के पन्नों पर ‘न्यू इंडिया’ और ‘युवा भारत’ का जो सपना शब्दों में पिरोया था, वह आज साकार होता नजर आ रहा है। भारत मजबूती से लगातार नई पहल के साथ आगे बढ़ रहा है। जिस तरह से भारत ने मोदी के नेतृत्व में चुनौतियों का सामना किया है, वह अपने आप में काबिले तारीफ है। यह निश्चित है कि मोदी के नेतृत्व में एक नई सभ्यता और एक नई संस्कृति गढ़ी जा रही है। नये विचारों, नये इंसानी रिश्तों, नये सामाजिक संगठनों, नये रीति-रिवाजों और नयी जिंदगी की हवायें लिए हुए आजाद मुल्क की गाथा सुनाता भारत एक बड़ा सवाल लेकर भी खड़ा है कि हम अपनी बुनियाद यानी युवाओं के सपनों को कब पंख लगायेंगे? कब उनकी निराशा की बदलियों की धूंध को दूर करेंगे? देश की युवापीढ़ी की जरूरतों को कब पूरा करेंगे एवं कब उन्हें परेशानियों से मुक्त करेंगे? यह एक बड़ा सवाल है।
कहते हैं कि युवा देश की धड़कन ही नहीं, उसके भविष्य का नियामक और नियंता भी होता है। स्वामी विवेकानंद ने जिस युवा पीढ़ी की ऊर्जा और राष्ट्रीय चरित्र की बात कही थी, वह आज बिखरी सी क्यों नजर आ रही है? केंद्र सरकार की एक रिपोर्ट के अनुसार अगले 15 साल में 100 में से 77 लोग बूढ़े होंगे। सतत विकास के एजेंडे की बात करें, तो अंतरराष्ट्रीय समुदाय और संयुक्त राष्ट्र सन 2030 तक युवा रोजगार के अवसरों एवं शिक्षा-प्रशिक्षण में युवाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए प्रतिबद्ध हैं। यदि भारत की बात करें, तो देश की युवा पीढ़ी के लिए सरकारी नौकरी सबसे ज्यादा आकर्षण का केंद्र बनी हुई है। यदि व्यक्तित्व में कर्मठता और ईमानदारी के साथ-साथ जिम्मेदारी का अहसास भी हो तो, किसी भी सेक्टर की नौकरी के प्रति अति आकर्षण कोई बुरी बात नहीं है। नरेन्द्र मोदी ने कहा था कि आज सपने देखना और आकांक्षाओं को उड़ान देना, यही युवा की पहचान होती है। फिर ऐसे क्या कारण है कि भारत का युवा कुछ विलक्षण, अद्भुत एवं अनूठा करने की बजाय नौकरी तक ही उलझा है?
कभी अमेरिका के वर्जीनिया में भारतीय प्रवासियों को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत को अमेरिका बनाकर दिखाने का संकल्प व्यक्त किया था। बहत्तर वर्ष के मोदी ने अपनी इसी जिन्दगी में ऐसा करने का विश्वास व्यक्त करना कहीं अतिश्योक्ति तो नहीं है? लेकिन बड़े सपने हमें वहां तक नहीं तो उसके आसपास तो पहुंचा ही देते हैं, इसलिये मोदी के इस संकल्प को सकारात्मक नजरिये से ही देखा जाना देश के हित में है। उन्होंने बड़े सपने लिया और उन्हें पूरा भी किया। लेकिन इन सुनहरे सपनों के बीच का यथार्थ बड़ा डरावना एवं बेचैनियों भरा है। देश की युवापीढ़ी बेचैन है, परेशान है, आकांक्षी है और उसके सपने लगातार टूट रहे हैं। देश का व्यापार धराशायी है, आमजनता अब शंका करने लगी है। इन हालातों में नया भारत बनाना या उसे अमेरिका बनाकर दिखाना एक बड़ी चुनौती है।
विकसित देशों में युवा 20 साल का होते-होते अपने स्वयं के इनोवेशन के लिए काम करने लगता है। बार-बार फेल होकर भी वह सफलता की ऊंचाई छूने की कोशिश में लगा रहता है। मगर भारत के हालात अलग हैं। कितना हास्यास्पद है कि हमने कुछ सरकारी नौकरियों को इतना महिमामंडित कर दिया है कि हर व्यक्ति वही नौकरी करना चाहता है, जिसमें दबंगई हो, प्रतिष्ठा हो, जी-हजूरी करने वालों की फौज हो, सुविधावाद हो। विकास को आकार देने में जुटे समाज में दबंगई की जरूरत ही क्या है। उधर उच्च शिक्षण संस्थान पढ़ाई की बजाय राजनीति के केंद्र बन रहे हैं। राजनीति बुरी नहीं, मगर आलम यह है कि वहां ऐसे नेता नजर आते हैं, जिनका पढ़ाई से कोई लेना-देना नहीं है। वे समय-समय पर बस अपनी ताकत ही दिखाते रहते हैं। हमने आजादी का अमृत महोत्सव मना लिया और अब भी हम अपने युवाओं को पुरानी मानसिकता से बाहर निकालकर रिसर्च और इनोवेशन के लिए तैयार ही नहीं कर पा रहे। चीन और जापान की तरह उन्हें उत्पादक नहीं बना पा रहे हैं। भारत नया बनने के लिए, स्वर्णिम बनने के लिए, अनूठा बनने के लिए और उसे अमेरिका बनाकर दिखाने के लिये अतीत का बहुत बड़ा बोझा हम पर है। बेशक हम नये शहर बनाने, नई सड़कें बनाने, नये कल-कारखानें खोलने, नई तकनीक लाने, नई शासन-व्यवस्था बनाने के लिए तत्पर हैं लेकिन मूल प्रश्न है इनमें युवाओं की भागीदारी कब सुनिश्चित करेंगे और कब हम उनकी अपेक्षाओं पर खरे उतरेंगे? भारत में आबादी का छठा हिस्सा बेरोजगार है और हम वैश्वीकरण की ओर जा रहे हैं, अमेरिका बनने की सोच रहे है, नया भारत बना रहे हैं। यह खोखलापन है। बहुत आवश्यक है संतुलित विकास की अवधारणा बने। केवल एक ही हाथ की मुट्ठी भरी हुई नहीं हो। दोनों मुट्ठियां भरी हों। वरना न हम नया भारत बना पायेंगे और न हम अमेरिका जैसा बन पायेंगे।
अमृत महोत्सव का माहौल है। अमृत काल है, जो हमें पीछे मुड़कर देखते हुए भविष्य के सपने बुनने के लिये पुनरावलोकन की मांग करता है कि हमें पहुंचना कहां था और हम जा किधर रहे हैं? सवाल उठता है कि भारत की धीमी प्रगति का एक कारण कहीं सरकारी नौकरी के प्रति युवाओं का अति लगाव, सरकारी तंत्र का भ्रष्टाचार में लिप्त होने के साथ-साथ कामकाज की तुलना में अधिक तनख्वाह एवं सुविधाएं देना तो नहीं है? आजादी के 75 साल बाद भी 92 प्रतिशत युवाओं में खतरों को मौल लेने की क्षमता ही नहीं विकसित हो पाई। आखिर वे सिर्फ सरकारी अथवा गैर सरकारी नौकरी से चिपक कर अपना जीवनयापन क्यों करना चाहते हैं? यह बात सच है कि बिना खतरे उठाए सफलता की ऊंचाई प्राप्त नहीं की जा सकती, नया भारत नहीं बनाया जा सकता। ऐसा लगता है कि देश का अधिकांश युवा वर्ग बिना पानी में उतरे तैरने का चैंपियन बनना चाहता है। विकास के बड़े और लुभावनें सपनों के साथ-साथ हम विवेक को कायम रखें, नैतिक मूल्यों एवं मौलिक सृजन को जीवन का आधार बनाएं। जिस प्रकार गांधीजी ने ‘मेरे सपनों का भारत’ पुस्तक लिखी, उन्होंने अपने सपनों में हिन्दुस्तान का एक प्रारूप प्रस्तुत किया जिसमें उन्होंने गरीबी, धार्मिक संघर्ष, अस्पृश्यता, नशे की प्रवृत्ति, मिलावट, रिश्वतखोरी, शोषण, दहेज और वोटों की खरीद-फरोख्त को विकास के नाम विध्वंस का कारण माना। उन्होंने स्टैंडर्ड आॅफ लाइफ के नाम पर भौतिकवाद, सुविधावाद और अपसंस्कारों का जो समावेश हिन्दुस्तानी जीवनशैली में हुआ है उसे उन्होंने हिमालयी भूल के रूप में व्यक्त किया है। लगता है हमने युवा हाथों में विकास के सपने थमाने की बजाय सुविधावाद थमा दिया।
विदेशों में भारत की स्थिति को मजबूत बनाना अच्छी बात है, लेकिन देश में बदलते हालातों पर निगाह एवं नियंत्रित भी जरूरी है। ऐसा नहीं होने का ही परिणाम है कि आठ सालों से लगातार युवा पीढ़ी निराशाओं से घिरती जा रही है। उनको नजरअंदाज करने की ही निष्पत्तियां कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में सिर उठा रही हैं। जो युवा मोदीजी को वोट देता गया, जिताता गया। अब वही पूछने लगा है कि क्या हुआ हमारे सपनों का? नया भारत हमारी बेचैनियों पर कैसे खड़ा करोंगे? युवा वर्ग को जिम्मेदार और जुझारू बनाने के साथ हर तरह के नशे से बचाने के ठोस प्रयास आवश्यक हैं, ताकि परिवार, समाज और देश का भी भविष्य खतरे में न पड़े और युवाओं की भागीदारी से भारत सचमुच नया भारत एवं सशक्त भारत बने।