भड़ास

राजेन्द्र कुमार सिंह

पक्षियों का कलरव आरंभ हो गयी थी।गांव के लोग पक्षियों के कलरव से भोर होने का अंदाजा लगाकर उठते हैं।और अपने माल-मवेशियों को घर के चारदीवारी के अंदर बंधे खूंटे से खोल उसे बाहर की दिशा में बने नाद की ओर ले जाते हैं।उसके बाद शुरू होता है दाना-पानी देने भिगोने का सिलसिला।

परंतु रामनाथ का समय का अंदाजा लगाने का ढंग कुछ निराला है।बुढ़ापे में वैसे भी नींद की खुमारी कुछ कम ही होती है।घंटे- दो-घंटे बीतते बिस्तर से उठ आंगन में आ चांद तारों को निहारता है।मन-ही-मन स्वयं से कहता है-‘अभी मध्यरात्रि का पहर है।’
गांव के अन्य लोग भी रामनाथ के बैलों की घंटी की प्रतिध्वनि का टोह लेते हैं।ठंड के अधिकता के कारण उसके हाथ पैर के साथ-साथ समूचे बदन में सिहरन दौड़ जाती है।पर रामनाथ लाचार है करे भी तो क्या?वह अपने बेटे-पोतों को जगाने का असफल प्रयास भी करता है।सुबह के बेला में नींद में खलल पड़ते देख नाक भौं सिकोड़ाकर खरी-खोटी सुनाने लगते हैं‌।कमबख्त सुबह का बेला है भी तो आलस्य का।

आज वातावरण में ठंड का प्रकोप और दिनों के अपेक्षा कुछ ज्यादा ही बढ़ गया है।रामनाथ का विचार होता कि बैलों को छोड़ दे खूंटे पर बंधे हुए।परंतु भूख की ज्वाला किसे नहीं मथती।माल-मवेशी तो पंगु होते हैं।वह कैसे कहेगा कि मुझे भूख है।भूख काअहसास होते ही उसकी अपनीअतड़िया कचोटने लगती है।वह उठ खड़ा होता है।लाठी को टेकते हुए मानो वह मन-ही-मनअपने बेटों के प्रति खीझ उतार रहा हो -‘साले मरेंगे।मेरा जीवन है ही कै घड़ी का।पका हुआ आम ठहरा।कब टपक पड़ू।’पहले बाहर का दरवाजा खोलता है उसके बाद एक-एक कर सारे मवेशियों को खूंटे से खोलकर हांक देता है।

आज खेत पर काम भी कुछ विशेष ही है।ठंड केअधिकता होते हुए भी वह ठंडे पानी में हाथ डालकर बैलों को सानी-पानी देता है।हाथ को मल-मलकर धोता है उसके बाद बिस्तर की ओर बढ़ जाता है।ठंड से छार हुए हाथ-पैर के उंगुलियों को सेंकने के उद्देश्य से पुआल के अलाव को जलाता है।हाथ सेंकने के लिए अभी बैठा ही है कि गर्मी का अहसास पाकर उसका बेटा करमू जग जाता है।पुआल के अलाव को जलाते देख राम-नाम के बेला में ही रामनाथ को खरी-खोटी सुनाने लग जाता है।

रामनाथ की अंतरात्मा खीझ उठती है।बेटे का जवाब वह उसी लहजे में देता है-‘मरेगा साला जब तक मैं हूं तब तक राज भोग ले।फिर ऐसी राज नसीब नहीं होगी।’

करमू तो लाल-लालआंख किए मानो ऐसा लग रहा था कि जल रहे अलाव के पास आकर अपने बाप को ही दो-चार हाथ जड़ देगा।परंतु क्षण भर में क्रोध पर विजय पा रिश्ते को ध्यान में रखकर वह नरम पड़ गया।विनम्र लहजे में कहा उसने-‘ रोज-रोज पुआल जलाने से क्या फायदा।बैलों को सानी-पानी देने के लिए अभी ढेर समय है।बीमार पड़ोगे तो तुम्हें क्याआटा गिल करोगे हम लोगों का।कमबख्त कैसी कनकनी ठंड गिर रही है।’इतना कह करमू लिहाफ में दुबक गया।

रामनाथ जवाब देने के बजाय अब कि बार चुप रहा।सुबह के बेला में इन कमबख्तों से मुंह लड़ाकर अपना सारा दिन खराब नहीं करना चाहता था।

‘बैलों को खिला-पिला क्या देते हैं,सभी पर हुकूमत चलाना चाहते हैं।’लिहाफ में दुबके करमू ने एक बार फिर छेड़ा।

करमू के बातों सेआहत हो रामनाथ अलाव को जलता छोड़ विस्तर के तरफ बढ़ गया।बुढ़ापे में देह के अलावा जुबान तक भी कमजोर पड़ जाती है।उस समय वह किसी दूसरे का मोहताज रहता है।उसे किसी दूसरे के अधीन में रहकर उसके कथनानुसार चलना पड़ता है।रामनाथ बिस्तर पर आकर सोचने लगा है।रामनाथ विवश है करें भी क्या?विवशता उसके सामने मुंह बाए खड़ी है।विवश मनुष्य पिंजरे में बंद उस पक्षी के समान होता है जिसे फड़फड़ाकर उसी घेरे के अंदर कैद रहना पड़ता है।अक्ल की सारी रेखाएं मृतप्राय हो जाती है।कभी उस घेरे का मालिक खुद था।स्वयं पिंजड़े का उस परिवार का संचालन का केंद्र था।कभी उस बिंदु से कार्य आरंभ होने का आज्ञा मिलता था।पर समय के थपेड़े ने उसे आज्ञाहीन बना दिया।

आंखों से नींद गायब हो गई थी रामनाथ की।वैसे भी रामनाथ लिहाफ में अपने जर्जर हुए वृद्ध शरीर को ढककर राम नाम रटा करता था।कभी-कभी उठंग भी जाता था।परंतु सोने का कोशिश हरगिज़ नहीं करता।कभी-कभार आंख खुमारी की आंच से झपक भी जाती तो पुनः उसे झटक देता।सुबह के बेला सोना अच्छा नहीं समझता था।परंतु आज बार-बार आंख झपक जाती है।कई बार झटका भी।पर आज करमू के व्यवहार ने उसे सुस्त कर दिया था।वह नींद के पालने में झुलने लगा।

सुबह वह स्वप्निल दुनिया में विचरण करने लगा था।वह देख रहा था लोग नसीहत को सुनकर उस पर अमल नहीं करते कल ही की तो बात है।पुरोहित जी रामायण की कथा वांच कर सुना रहे थे।किस तरह पिता की आज्ञा का पालन करने हेतु राम ने राज्य का परित्याग कर वन से दोस्ती कर ली थी।पुरोहित जी कह रहे थे-‘माता-पिता के चरणों में ही पुत्र का स्वर्ग है।पुत्र का चारों धाम उसके माता-पिता ही हैं।

करमू तन्मय होकर पुरोहित जी की बातें सुन रहा था।बोला-‘ पुरोहित जी,ये तो आपने सही कहा माता-पिता के चरणों में ही पुत्र का स्वर्ग है।माता-पिता का सेवा-सुश्रुवा करना ही पुत्र का परम कर्तव्य होता है।परंतु लोग सेवा करते कितने हैं।’

‘दूसरे का छोड़ करमू,पहले अपना देखो तुम अपना कर्तव्य निभा सकते हो कि नहीं।’पुरोहित जी ने कहा।

‘क्यों नहीं मैं तो हद तक निभा रहा हूं।मैं अपने बाबू के साथ ऐसा आचरण दुर्व्यवहार नहीं करता जिससे उनकी आत्मा को चोट पहुंचे।’करमू तो उस समय ऐसा लग रहा था,मानो वह करमू न होकर श्रवण कुमार बोल रहा हो।

करमू के बाबू रामनाथ उस समय वही थे।पुत्र के मुख से बाप के प्रति स्नेहिल शब्द सुनकर रामनाथ का हृदय गदगद हो गया था।आज उसका पुत्र करमू उसके समक्ष श्रवण कुमार जैसा दीख रहा था।

प्रवचन समाप्त होते ही करमू ने रामनाथ को किस कदर आत्मीयता व स्नेहिल प्यार से उठाया था।गली का मोड़ पार करते समय रामनाथ गिरने को हुआ था।उस समय करमू कैसे अपने को कीचड़ भरे नाले में कूदकर कैसे सहारा दिया था।मानो उस समय करमू का हाथ,हाथ नहीं मानो फूल का पुलिंदा हो।और सचमुच रामनाथ का जब नींद टूटा तो करमू का हाथ रामनाथ के बदन को टटोल रही थी।

‘क्या है रे ।’रामनाथ ने मद्बिम स्वर में बोला।

‘कुछ नहीं बाबू,सोया देखा तो शक (शंका) हुआ की कहीं आपका तबीयत खराब तो नहीं,इसलिए…..’करमू अभी कुछ और कहता इसके पहले रामनाथ वाक्य को काटते हुए बोल पड़ा-‘जा काम कर अपना।मुंह से कभी जहर उगलता है तो कभी अमृत।’

रामनाथ की बातें सुनकर करमू के आंखों में पानी भर आया। बोला-‘बाबू मैंने आपको सुबह-सुबह काफी चोट पहुंचाया न…..।’

‘नहीं रे,मुझे तनिक भी दुख नहीं।दुख है तो सिर्फ इतना कि तुमको अपने दिल का भड़ास ही निकालना था तो अपने पुत्रों के सामने क्यों निकाला।ऐसा करके तू अपना भी अपने बेटे से दुर्गति करवाना चाहता है।जिस तरह तुमनेअपमान बोधक शब्दों से मेरे हृदय को बिंधा,देखा-देखी तुमको भी तुम्हारा पुत्र बिंधेगा।’समझा?

‘जी बाबू।’करमू ने पश्चाताप के आंसू बहाते हुए कहा-‘जो भी आपको खरी-खोटी सुनाना हो या दिल का भड़ास निकालना होगा तो आपके कथनानुसार एकांत में निकालूंगा।’

करमू की बातें सुनकर रामनाथ का आत्मा एक बार फिर कांप गया।दुखितआत्मा से मन-ही-मन कहा-‘तो क्या अभी कुछऔर बाकी है।उस दिन की बातें सुनकर रामनाथ सुस्त हो गया। शरीर नमक की भांति दिन-पर-दिन गलने लगा।करमू कभी- कभी झिड़कता भी-‘न टाइम पर पथ्य लेते हैंऔर न ही दवा- दारू।रामनाथ अब क्या कहता-‘करमू अब पथ्य व दवा-दारू से कुछ होने वाला नहीं।अब मैं अपने शरीर काऔर गिंजन करवाना नहीं चाहता।मुझे मर जाने में ही तुम सबका भलाई है।

और कुछ दिनों के उपरांत ही रामनाथ का साया सदा के लिए उठ गया।करमू कह रहा था-‘मौत अच्छी थी दुख नहीं भोगे बाबूजी,चलते-फिरते मरे।’