ललित गर्ग
आगामी पांच राज्यों में विधानसभा एवं अगले वर्ष लोकसभा चुनाव की आहट के साथ एक बार फिर अपराधी उम्मीदवारों को लेकर चिन्ता के स्वर उभर रहे हैं। राजनीति में आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों का प्रवेश रोकने के लिए लंबे समय से बहसें चलती रही हैं। अमूमन सभी दल और उनके नेता इसे लेकर चिंता जताते हैं, मगर विडंबना यह है कि अब तक कोई ऐसी व्यवस्था नहीं बन सकी है, जिसमें किसी अपराध में लिप्त रहे व्यक्ति को संसद या विधानसभा में पहुंचने से रोका जा सके। एसोएिशन आफ डेमोक्रेटिक रिसर्च की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि करीब चालीस फीसद मौजूदा सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं। इनमें से पचीस फीसद मामले गंभीर अपराधों से जुड़े हुए हैं, जिनमें हत्या, हत्या की कोशिश, अपहरण, महिलाओं के विरुद्ध अपराध जैसे मामले शामिल हैं। ये ही अपराधी छवि वाले सांसद एवं विधायक एक बार फिर उम्मीदवार बनने में सफल होने वाले हैं। सवाल है कि देश की संसद तक में इस स्थिति के रहते अपराधमुक्त राजनीति का लक्ष्य कैसे प्राप्त हो सकेगा? निश्चित रूप से भारतीय लोकतंत्र की यह एक विदू्रपता एवं त्रासदी ही है कि किसी अपराधी का दोषी होने और सजायाफ्ता होने के बावजूद उसे कैसे उम्मीदवार बनाकर कर भोली-भाली जनता पर थोप दिया जाता है। ऐसे अपराधी किस्म के जनप्रतिनिधि क्या जनता की भलाई करेंगे एवं क्या विधायिका में बैठकर जनता के हित के कानून बना पायेंगे?
आजादी के अमृतकाल की दुदुम्भी और शंखनाद से इतर जब राजनीति के अपराधीकरण पर हम नजर डालते हैं तो शर्म से सिर झुक जाता है। जो सदन कभी जनता के सवालों पर गूंजता था, एक से बढ़कर एक वक्ताओं के ऐतिहासिक एवं सार्थक भाषणों की संसद से लेकर सड़क तक चर्चा होती थी, लोकतंत्र की इस खूबी पर दुनिया को भी जलन होती थी, आज वही लोकतंत्र, वही सदन दागी नेताओं की उपस्थिति और उसके खेल से शर्मसार है। भारतीय संसद के अबतक के इतिहास पर नजर डाले तो लगता है कि जिस तेजी से संसद और विधानसभाओं में दागी नेताओं की उपस्थिति बढ़ रही है, एक दिन ऐसा आएगा जब संसद में बेदाग नेता-मंत्रियों की तलाश अधूरी ही रह जायेगी। ऐसे अपराधी सांसदों एवं विधायकों के कारण सदनों में सत्रों के दौरान सार्थक बहसों की बजाय हंगामे होते हैं। इन्हीं कारणों से चिंताजनक स्थिति यह बनी है कि आज भारत में ही संसद के प्रति सम्मान, संसद में शालीन आचरण और पक्ष-विपक्ष के बीच स्वस्थ परंपराएं अब धूमिल हो रही हैं। संसद की कार्यवाही तो इसी हृास का संकेत करती है। देखना है कि संसद के आगामी विशेष सत्र में संविधान सभा से शुरू होने वाली 75 साल की संसदीय यात्रा पर चर्चा के समय कोई अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत हो पाता है या नहीं?
एक सफल लोकतंत्र के जितने भी आयाम हैं क्या भारत उसपर खरा उतरा है? किसी भी लोकतंत्र की साख उसकी विधायिका पर ज्यादा निर्भर है। नेता के गुण-अवगुण और चरित्र लोकतंत्र को ज्यादा प्रभावित करते हैं। आजादी के बाद भारतीय विधायिका और उसके नेताओं की जनता के प्रति वफादारी और उत्तरदायित्व की तूती बोलती थी लेकिन अब वही विधायिका आपराधिक कुकृत्यों से कलंकित है। राजनीति में आपराधिक तत्वों का आधिपत्य है और संसद से लेकर विधानसभाएं अपराधी, दागी नेताओं से भरी हुई है। ऐसे में भला एक ईमानदार एवं आदर्श लोकतंत्र की कल्पना कैसे की जा सकती है? संसद और विधानसभाओं का भविष्य धुंधलाता जा रहा है। भले ही महिलाओं को संसदीय राजनीति के लिए अब तक 33 फीसदी आरक्षण का लाभ तो नहीं मिला हो लेकिन बड़ा सच यही है कि गुपचुप तरीके से सभी राजनीतिक दलों ने सदन में दागी नेताओं के लिए 33 फीसदी से ज्यादा सीटें आरक्षित कर रखी है। इसे आप दागियों के पैरों तले लोकतंत्र को कुचलना कहिये या फिर दागियों के प्रति लोकतंत्र की आस्था। यही हाल धनकुबेर नेताओं का भी है। अगर दागियों के लिए 33 फीसदी से ज्यादा सीटें आरक्षित है तो धनकुबेर नेताओं के लिए भी 80 फीसदी से ज्यादा सीटें आरक्षित हैं। जब ऐसे धनबल, बाहुबल एवं अपराध बल वाले जनप्रतिनिधि होंगे, ऐसे ही देश के कानून बनाने वाले होंगे तो सदन के अध्यक्ष के आसन के समक्ष मेज पर चढ़कर उनके ऊपर कागज फाड़कर फेंकने की घटनाएं आम होती जायेगी? फिर उस युवा को गलत कैसे कहा जाएगा, जो अपने कुलपति या प्राचार्य के कक्ष में घुसकर तोड़-फोड़ करता है या सड़कों पर हंगामें खड़ा करता है?
गौरतलब है कि मौजूदा कानूनी व्यवस्था के तहत अदालत की ओर से किसी अपराध का दोषी घोषित हो जाने और दो साल से ज्यादा की सजा पाने वालों को चुनाव लड़ने पर पाबंदी है, लेकिन यह अवधि छह साल बीत जाने के बाद वही व्यक्ति फिर से संसद या विधानसभा का चुनाव लड़ सकता और जीतने के बाद जनप्रतिनिधित्व कहला सकता है। आजादी के अमृतकाल में सर्वोच्च सदनों को अधिक पवित्र एवं पावन बनाने के लिये सांसदों को अधिक पवित्र और कानून का पालन करने वाला होना जरूरी है। चूंकि सांसद और विधायक आम जनता की संप्रभु इच्छा का प्रतिनिधित्व करते हैं, इसलिए एक बार नैतिक अपराध से जुड़ा पाए जाने के बाद उन्हें स्थायी रूप से चुनावी राजनीति के लिए अयोग्य घोषित कर दिया जाना चाहिए। अब इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमित्र ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि अगर कोई व्यक्ति किसी अपराध के लिए एक बार दोषी करार दे दिया जाता है तो उसके चुनाव लड़ने पर आजीवन प्रतिबंध लगा देना चाहिए। इस रपट को राजनीति में आपराधिक छवि के लोगों के दखल को रोकने की दिशा में एक अहम विचार के रूप में देखा जा रहा है।
न्यायिक प्रक्रिया में तेजी लाने से राजनीतिक व्यवस्था में भ्रष्ट और आपराधिक तत्वों को बाहर निकाला जा सकेगा। अब समय आ गया है कि सभी राजनीतिक दल एक साथ आएं और अपराधियों को सिस्टम से बाहर रखने पर आम सहमति बनाएं। क्योंकि जब अपराधी निर्वाचित प्रतिनिधि बन जाते हैं और कानून निर्माता बन जाते हैं, तो वे लोकतांत्रिक व्यवस्था के कामकाज के लिए गंभीर खतरा पैदा करते हैं। हमारे लोकतंत्र का भविष्य ख़तरे में पड़ जाता है जब ऐसे अपराधी नेता बनकर पूरी व्यवस्था का मज़ाक उड़ाते हैं। क्या हम युवाओं से उम्मीद कर सकते हैं कि वे ऐसे नेताओं को देखें और उनमें अपना आदर्श देखें?
इन वर्षों में जितने भी चुनाव हुए हैं वे चुनाव अर्हता, योग्यता एवं गुणवत्ता के आधार पर न होकर, व्यक्ति, दल या पार्टी के धनबल, बाहुबल एवं जनबल के आधार पर होते रहे हैं, जिनकों आपराधिक छवि वाले राजनेता बल देते रहे हैं। आम आदमी पार्टी ने भ्रष्टाचार एवं अपराधों पर नियंत्रण की बात करते हुए राजनीति का बिगुल बजाया। लेकिन यह दल तो जल्दी ही अपराधी तत्वों से घिर गया है। आप एवं उसके सर्वेसर्वा अरविन्द केजरीवाल ने सार्वजनिक रूप से अनेक दावे किये कि वे राजनीति को स्वच्छ बनाने के लिए काम करेंगे, लेकिन मौका मिलते ही वे भी इस बात का खयाल रखना जरूरी नहीं समझते कि अपराध के आरोपी या आपराधिक पृष्ठभूमि वाले किसी व्यक्ति को उम्मीदवार बनाने से कौन-सी परंपरा मजबूत होगी। चिन्ता भारतीय राजनीति के लगातार दागी होते जाने की हैं। लगभग हर पार्टी से जुड़े नेताओं पर अपराधी होने के सवाल समय-समय पर खड़े होते रहे हैं। लेकिन आप में अपराधी राजनेताओं का सहारा ज्यादा जोरदार तरीके से लिया जा रहा है, अपने स्वल्प शासनकाल ने इस दृष्टि से उसने सारी सीमाओं को लांघ दिया है। प्रश्न है कि आखिर कब हम राजनीति को भ्रष्टाचार एवं अपराध की लम्बी काली रात से बाहर निकालने में सफल होंगे। कब लोकतंत्र को शुद्ध सांसें दे पायेंगे? कब दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र स्वस्थ बनकर उभरेगा?