ललित गर्ग
पयुर्षण पर्व जैन समाज का आठ दिनों का एक ऐसा महापर्व है जिसे खुली आंखों से देखते ही नहीं, जागते मन से जीते हैं। यह ऐसा मौसम है जो माहौल ही नहीं, मन को पवित्रता में भी बदल देता है। आधि, व्याधि, उपाधि की चिकित्सा कर समाधि तक पहुंचा देता है, जो प्रतिवर्ष सारी दुनिया में मनाया जाता है। जैनधर्म की त्याग प्रधान संस्कृति में इस पर्व का अपना अपूर्व महत्व है। इसको पर्व ही नहीं, महापर्व माना जाता है। क्योंकि यह पर्व आध्यात्मिक पर्व है, और एकमात्र आत्मशुद्धि का प्रेरक पर्व है। इसीलिए यह पर्व ही नहीं, महापर्व है। जैन लोगों का सर्वमान्य विशिष्टतम पर्व है। चारों ओर से इन्द्रिय विषयों एवं कषाय से सिमटकर, स्वभाव में, आत्मा में निवास करना, ठहरना, रहना ही पर्युषण का वास्तविक अर्थ और उद्देश्य है। जिसका भावार्थ एवं फलितार्थ होता है-कषायादि का उपशमन, इन्द्रियों का संयम, विभावों से हटकर स्वभाव में रमण, भूलों का सिंहावलोकन, शुभ संकल्पों का आभास, मैत्री भाव का विकास एवं नव वर्ष के लिए नवीन योजनाआंे का सृजन आदि-आदि।
पर्युषण पर्व- जप, तप, साधना, आराधना, उपासना, अनुप्रेक्षा आदि अनेक प्रकार के अनुष्ठानों का अवसर है। यह महापर्व आत्मिक उज्ज्वलता का पर्व है। आत्मावलोकन का दिन है, भीतर में झांकने का समय है। प्राणी के अनंत जन्म बाहर ही बाहर देखने में व्यतीत हो जाते हैं। वह नहीं जानता कि भीतर में क्या है? पर्युषण पर्व भीतर की ओर मुड़कर देखने की बात सिखाता है। बाहर देखने वाला किनारे पर रह जाता है। परंतु गहराई में डुबकी लगाने वाला अमूल्य रत्नों को पाता है। मनुष्य का मन तब तक हल्का-भारहीन नहीं बन सकता, जब तक वह अंतर की गहराई मंे पहुंचकर भारमुक्त नहीं हो जाता। भार-मुक्तता उपदेश सुन लेने मात्र से प्राप्त नहीं हो सकती। वह प्राप्त हो सकती है-निःशल्य भाव से अथवा आराधना-विराधना के शास्त्रीय ज्ञान से। इस हेतु प्रतिक्रमण करना आवश्यक होता है। प्रतिक्रमण का अर्थ है-प्रमाद के कारण जो गलतियों हुई और उससे चेतना पर जो व्रण या घाव हो गये हैं, उनकी दैनिक, पाक्षिक एवं सांवत्सरिक अवसर पर चिकित्सा कर घाव को भर देना।
प्रतिक्रमण के द्वारा भूलों के कारणों की खोज की जा सकती है, तथा उनका निवारण भी किया जा सकता है। प्रति का अर्थ है-वापिस, और क्रमण का अर्थ है-लौटना। वापिस अपने आप में लौट आना। जैसे-असत्य से सत्य की ओर आना, अशुभ से शुभ की ओर आना, प्रमाद से अप्रमाद की ओर आना, वैर से मैत्री की ओर कदम बढ़ाना। आज का मनुष्य जो इतना अशांत है, उसका मूल कारण आत्मावलोकन का अभाव है। हर कोई दूसरे को तो दोषी ठहरा रहा है, लेकिन अपनी भूल को स्वीकार करने में किंचित मात्र भी पहल नहीं कर पा रहा है। प्रतिक्रमण द्वारा अपनी जान या अनजान में हुई गलतियों का चिंतनपूर्वक निराकरण किया जा सकता है। प्रतिक्रमण करने का प्रमुख उद्देश्य है-भूलों का संशोधन। प्रतिक्रमण का फलित है-अतीत का प्रतिक्रमण, वर्तमान को सामायिक एवं आगामी काल के लिए प्रत्याख्यान। प्रतिक्रमण का प्रयोग-भूत, भविष्य एवं वर्तमान इन तीनों कालों की शुद्धि का आध्यात्मिक प्रयोग है। आत्मा ही दुःख-सुख की करने वाली और उनका क्षय करने वाली है। सत्प्रवृत्ति में प्रवृत्त आत्मा ही मित्र है और दुष्प्रवृत्ति में प्रवृत्त आत्मा ही अपनी शत्रु है। अतः किसी को मित्रा बनाना है, उसका रहस्य भी अंतर में खोजें और शत्रुओं को मिटाना है तो उसका राज भी अंतर में ही मिलेगा। वस्तुतः ही पर्युषण भीतर की सफाई का अमोघ उपाय है।
संपूर्ण जैन समाज इस पर्व के अवसर पर जागृत एवं साधनारत हो जाता है। दिगंबर परंपरा में इसकी ‘‘दशलक्षण पर्व’’ के रूप मंे पहचान है। उनमें इसका प्रारंभिक दिन भाद्रव शुक्ला पंचमी और संपन्नता का दिन चतुर्दशी है। दूसरी तरफ श्वेतांबर जैन परंपरा में भाद्रव शुक्ला पंचमी का दिन समाधि का दिन होता है। जिसे संवत्सरी के रूप में पूर्ण त्याग-प्रत्याख्यान, उपवास, पौषध सामायिक, स्वाध्याय और संयम से मनाया जाता है। वर्ष भर में कभी समय नहीं निकाल पाने वाले लोग भी इस दिन जागृत हो जाते हैं। कभी उपवास नहीं करने वाले भी इस दिन धर्मानुष्ठानपूर्वक उपवास करते नजर आते हैं। पर्युषण पर्व का शाब्दिक अर्थ है-आत्मा में अवस्थित होना। पर्युषण शब्द परि उपसर्ग व वस् धातु इसमें अन् प्रत्यय लगने से पर्युषण शब्द बनता है। पर्युषण का एक अर्थ है-कर्मों का नाश करना। कर्मरूपी शत्रुओं का नाश होगा तभी आत्मा अपने स्वरूप में अवस्थित होगी अतः यह पर्युषण-पर्व आत्मा का आत्मा में निवास करने की प्रेरणा देता है।
पर्युषण महापर्व आध्यात्मिक पर्व है, इसका जो केन्द्रीय तत्त्व है, वह है-आत्मा। आत्मा के निरामय, ज्योतिर्मय स्वरूप को प्रकट करने में पर्युषण महापर्व अहं भूमिका निभाता रहता है। अध्यात्म यानि आत्मा की सन्निकटता। यह पर्व मानव-मानव को जोड़ने व मानव हृदय को संशोधित करने का पर्व है, यह मन की खिड़कियों, रोशनदानों व दरवाजों को खोलने का पर्व है। यह कषाय शमन का पर्व है। यह पर्व 8 दिन तक मनाया जाता है जिसमें किसी के भीतर में ताप, उत्ताप पैदा हो गया हो, किसी के प्रति द्वेष की भावना पैदा हो गई हो तो उसको शांत करने का उपक्रम इस दौरान किया जाता है। धर्म के 10 द्वार बताए हैं उसमें पहला द्वार है-क्षमा। क्षमा यानि समता। क्षमा जीवन के लिए बहुत जरूरी है जब तक जीवन में क्षमा नहीं तब तक व्यक्ति अध्यात्म के पथ पर नहीं बढ़ सकता।
इस पर्व में सभी अपने को अधिक से अधिक शुद्ध एवं पवित्र करने का प्रयास करते है। प्रेम, क्षमा और सच्ची मैत्री के व्यवहार का संकल्प लिया जाता है। खान-पान की शुद्धि एवं आचार-व्यवहार की शालीनता को जीवनशैली का अभिन्न अंग बनाये रखने के लिये मन को मजबूत किया जाता है। मानवीय एकता, शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व, मैत्री, शोषणविहीन सामाजिकता, अंतर्राष्ट्रीय नैतिक मूल्यों की स्थापना, अहिंसक जीवनशैली का समर्थन आदि तत्त्व पर्युषण महापर्व के मुख्य आधार हैं। ये तत्त्व जन-जन के जीवन का अंग बन सके, इस दृष्टि से पर्युषण महापर्व को जन-जन का पर्व बनाने के प्रयासों की अपेक्षा है।
मनुष्य धार्मिक कहलाए या नहीं, आत्म-परमात्मा में विश्वास करे या नहीं, पूर्वजन्म और पुनर्जन्म को माने या नहीं, अपनी किसी भी समस्या के समाधान में जहाँ तक संभव हो, अहिंसा का सहारा ले- यही पयुर्षण की साधना का हार्द है। हिंसा से किसी भी समस्या का स्थायी समाधान नहीं हो सकता। हिंसा से समाधान चाहने वालों ने समस्या को अधिक उकसाया है। इस तथ्य को सामने रखकर जैन समाज ही नहीं आम-जन भी अहिंसा की शक्ति के प्रति आस्थावान बने और गहरी आस्था के साथ उसका प्रयोग भी करे।
तिकताविहीन धर्म, चरित्रविहीन उपासना और वर्तमान जीवन की शुद्धि बिना परलोक सुधार की कल्पना एक प्रकार की विडंबना है। धार्मिक वही हो सकता है, जो नैतिक है। उपासना का अधिकार उसी को मिलना चाहिए, जो चरित्रवान है। परलोक सुधारने की भूलभुलैया में प्रवेश करने से पहले इस जीवन की शुद्धि पर ध्यान केंद्रित होना चाहिए। धर्म की दिशा में प्रस्थान करने के लिए यही रास्ता निरापद है और यही पर्युषण महापर्व की सार्थकता का आधार है।
पर्युषण महापर्व का अन्तिम चरण- क्षमावाणी या क्षमायाचना है, जो मैत्री दिवस के रूप में आयोजित होता है। इस तरह से पर्युषण महापर्व एवं क्षमापना दिवस- यह एक इंसान को दूसरे के निकट लाने का पर्व है। इंसान इंसान के बीच की दूरियों को समाप्त कर एक दूसरे को अपने ही समान समझने का पर्व है। गीता में भी कहा है‘‘‘आत्मौपम्येन सर्वत्रः, समे पश्यति योर्जुन’’‘श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा-हे अर्जुन ! प्राणीमात्र को अपने तुल्य समझो। भगवान महावीर ने कहा-‘‘मित्ती में सव्व भूएसु, वेरंमज्झण केणइ’’सभी प्राणियों के साथ मेरी मैत्री है, किसी के साथ वैर नहीं है।
पर्युषण पर्व अंर्तआत्मा की आराधना का पर्व है- आत्मशोधन का पर्व है, निद्रा त्यागने का पर्व है। सचमुच में पर्युषण पर्व एक ऐसा सवेरा है जो निद्रा से उठाकर जागृत अवस्था में ले जाता है। अज्ञानरूपी अंधकार से ज्ञानरूपी प्रकाश की ओर ले जाता है। तो जरूरी है प्रमादरूपी नींद को हटाकर इन आठ दिनों में विशेष तप, जप, स्वाध्याय की आराधना करते हुए अपने आपको सुवासित करते हुए अंर्तआत्मा में लीन हो जाए जिससे हमारा जीवन सार्थक व सफल हो पाएगा।