ऋतुपर्ण दवे
भारतीय शिक्षा व्यवस्था उसमें भी खासकर सरकारी तंत्र के अधीन संचालित शिक्षण संस्थाएँ आज भी उस मुकाम पर नहीं पहुँच सकीं जिसकी उम्मीद थी। जिनके लिए और जिनके सहारे सारी कवायद हो रही है वहीं महज रस्म अदायगी करते हुए तमाम सरकारी फरमान एक दूसरे तक इस डिजिटल दौर में फॉरवर्ड कर खाना पूर्ति करते नजर आते हैं। ऐसी तमाम कोशिशों, योजनाओं के बावजूद मौजूदा हालात देख जल्द कुछ अच्छे सुधार की उम्मीद बेमानी है। सबसे ज्यादा बदहाल सरकारी स्कूलों की व्यवस्थाएँ है। सच तो यह है कि भारत में पूरी शिक्षा व्यवस्था यानी बुनियादी से लेकर व्यावसायिक तक बाजारवाद में जकड़ी हुई है। इसी चलते जहाँ निजी या कहें कि आज के दौर के धन कुबेरों या बड़े कॉर्पोरेट घरानों के स्कूल जो फाइव स्टार सी चमक दिखाकर रईसों में लोकप्रिय हैं तो वहीं मध्यमवर्गीय लोगों की पसंद के अपनी खास चमक-दमक, लुभावनी वर्दी, कंधों पर भारी भरकम स्कूल बैग और कई आडंबरों वाले हजारों निजी स्कूल देश की बड़ी आबादी की अच्छी खासी जेब ढ़ीली कर रहे हैं। अंत में बचते हैं साधारण, गरीब व बेहद गरीब तबके के लोग जिनके लिए सिवाय सरकारी स्कूलों के और कोई रास्ता ही नहीं बचता। ऐसे अधिकाँश सरकारी स्कूलों में शिक्षकों की मनमानी, एक शिक्षक के भरोसे पूरी स्कूल, सँसाधनों की कमीं, बिल्डिंग का रोना और समय की मनमानी का खुला खेल चलता है। नीतियाँ चाहें जितनी बन जाएँ लेकिन सरकारी स्कूलों में चल रही रीतियाँ बदले बिना सुधार दिखता नहीं।
एक बड़ा सच यह भी कि प्राइवेट स्कूलों के मुकाबले बेहद अच्छी पगार और ढ़ेरों सुविधाओं तथा स्कूली व्यवस्थाओं के लिए कई तरह के फण्ड से हजारों रुपए सालाना खर्चने के बाद भी जर्जर और दयनीय सी दिखने वाली स्थिति के स्कूल कब और कैसे सुधरेंगे बड़ा सवाल है? शायद इसीलिए लगभग हर प्रदेश के शहरों से गाँवों तक के प्रायमरी से लेकर हायर सेकेण्डरी स्कूलों के लिए भारी भरकम बजट पूरा का पूरा खर्चा जाता है, बावजूद उसके स्कूल बिल्डिंग की हालत देखते ही सामने वाला समझ जाता है कि यही इलाके का सरकारी स्कूल है। कोई दो राय नहीं कि देश में सबसे ज्यादा बदहाल सरकारी स्कूले ही हैं। सोचनीय है कि जब नींव ही कमजोर होगी तो आगे क्या होगा या होता होगा? शायद इसीलिए नकल की बीमारी, दादागिरी या संगठित शिक्षा माफिया तेजी से पनपते हैं जिसके केन्द्र बिन्दु में सरकारी स्कूल ही होते हैं।
ऐसे हालातों के बावजूद प्रतिभाओं की कमीं नहीं है और कई संस्थाएं देश का नाम रौशन कर रही हैं। हाल ही में क्वाक्वेरेली साइमंड्स वर्ल्ड यूनिवर्सिटी जो दुनियाभर के विश्वविद्यालयों और तकनीकी संस्थानों की रैंकिंग जारी करती है ने 2022 में विषय वार सूची में आईआईएससी बेंगलुरु, आईआईटी दिल्ली, मद्रास और बॉम्बे को विश्व के 100 शीर्ष संस्थानों तथा 35 कार्यक्रमों को विश्व रैंकिंग में जगह दी। यकीनन यह सुखद और उपलब्धिपूर्ण है वह भी तब, जब देश की 80 से 90 फीसदी सरकारी स्कूलों में प्रायमरी से लेकर हायर सेकेण्डरी की तमाम व्यवस्थाएँ भगवान भरोसे हैं।
सरकारी और प्राइवेट स्कूलों के बीच इसी खाई से पढ़ाई अमीरों के लिए शिक्षा तो गरीबों के लिए साक्षरता के बीच के पेण्डुलम से ज्यादा कुछ नहीं होती। हमें 2018 की विश्व विकास रपट यानी वर्ल्ड डेवलपमेण्ट रिपोर्ट देखना चाहिए जिसमें लर्निंग टू रियलाइज एजुकेशंस प्रॉमिस में भारत में तीसरी कक्षा के तीन चौथाई विद्यार्थी दो अंकों को घटाने वाले सवाल हल नहीं कर पाए और पाँचवीं कक्षा के आधे विद्यार्थी ऐसा नहीं कर सके। साफ है अधिकांश विद्यार्थी पठन दक्षता के न्यूनतम स्तर पर थे। यदि सरकारी नीतियों के चलते यही आगे बने रहेंगे तो प्राइवेट स्कूलों के साधन संपन्न विद्यार्थियों की तुलना में इनका स्तर हमेशा न्यूनतम ही रहेगा। ऐसे में गुणवत्ता की बात करना ही बेमानी है। यही कारण है कि गरीब परिवारों से आने वाले बच्चों का औसत प्रदर्शन अमीर परिवारों से आने वाले बच्चों की तुलना में कम होता है। एक चौंकाने वाली बात भी इसी रिपोर्ट 2018 की है। जिसमें कहा गया है कि भारत के 1300 गांवों में प्राथमिक विद्यालय के औचक निरीक्षण के दौरान 24 प्रतिशत शिक्षक गायब मिले। इसी बीच कोरोना आ गया और दो सत्र कक्षाएँ बन्द रहीं। लंबे समय तक स्कूल बंदी से बच्चों की पढ़ाई प्रभावित हुई। इस बीच सरकारी घोषणा हुई कि ‘एक कक्षा, एक टीवी चैनल’ योजना का विस्तार होगा। शायद कोरोना काल में ऑनलाइन पढ़ाई के नतीजों से ऐसा ख्याल आया हो। जब सरकार को स्कूलों पर बजट बढ़ाना था और नए जोश और तौर तरीकों से संचालन कराने की रणनीति बनाना था तो टीवी से पढ़ाई की बात कर बजट कटौती की कोशिश तो नहीं? इस सच को स्वीकारना होगा कि दुनिया ने ऑनलाइन और डिजिटल एजूकेशन के परिणाम और दुष्परिणाम दोनों ही देख लिए हैं।
विडंबना कहें या सच्चाई, सरकारी शिक्षक की पगार की तुलना में बेहद कम में प्राइवेट स्कूल लगातार बहुत अच्छे नतीजे देते सकते हैं तो अपनी इस कमीं या खामीं को सरकारें क्यों अनदेखा करती हैं? हर शिक्षक में नवाचार की संभावनाएं होती हैं लेकिन व्यव्हारिक रूप से सरकारी शिक्षक इस पर ध्यान न देकर केवल बच्चों की परीक्षा पास कराने का जरिया से ज्यादा कुछ नहीं बनते। यही बड़ी चूक है। गाँवों व कस्बों के ज्यादातर स्कूल शिक्षक विहीन होते हैं तो कस्बों, शहरों में जुगाड़ के दम पर एक ही विषय के कई-कई पोस्टेड हो जाते हैं। फर्जीवाड़ा कर अन्य विषय के शिक्षक खाली जगहों पर जा धमकते हैं। नीति आयोग की विद्यालयीन शिक्षा गुणवत्ता सूचक (एसईक्यूआई) की पहली रिपोर्ट ही बताती है कि बिहार में 80, झारखण्ड में 76, तेलंगाना में 65, मप्र में 62 प्रतिशत तो छत्तीसगढ़ में 46 प्रतिशत स्कूल प्राचार्य विहीन थे। अब तक तो स्थिति और भी बदतर हो चुकी होगी। अपात्र शिक्षकों के कंधों पर प्रधानाचार्य बोझ डाल कागजों में गोपाल गाँठ बिठायी जाती है। आलम यह है कि वरिष्ठ शिक्षक तो छोड़िए कहीं माध्यमिक तो कहीं प्राथमिक या संविदा या अतिथि शिक्षक ही एक नहीं कई जगह संस्था प्रमुख बन जाते हैं जो बाबू से लेकर दफ्तरी तक का काम करते हैं। सवाल यही कि ये पढ़ाएँगे कब और कैसे?
सरकारी स्कूलों में हर महीने भारी भरकम धनराशि तो खर्च होती है। देश के छोटे से छोटे विकास खण्ड में लाखों खर्चे जाते हैं बावजूद इसके शिक्षा का स्तर नहीं सुधरता। वहीं सरकारी के मुकाबले आधे से भी कम पगार में उसी क्षेत्र के प्राइवेट स्कूल बेहतर नतीजे कैसे देते हैं? एक बड़ा सच यह भी कि सरकारी स्कूलों से निकले ज्यादातर बच्चे मिडिल, हाई और हायर सेकेण्डरी तक पहुँचते-पहुँचते प्राइवेट स्कूलों के मुकाबले फिसड्डी रहते हैं। सरकारी और निजी स्कूलों के शिक्षकों के पगार के अन्तर के मुकाबले गुणवत्ता का यह भेद खुद ही सच उगलने काफी है।
हाँ, थोड़े से प्रयासों और जरा सी धनराशि से मौजूदा सरकारी स्कूलों का सिस्टम सुधर सकता है। महज एक पक्के सरकारी शिक्षक की मासिक पगार के खर्च जितने में उस पूरे स्कूल का कायाकल्प और लगातार निगरानी हो सकती है। करना इतना होगा कि स्कूलों में सीसीटीवी अनिवार्य हों जो प्रत्येक कक्षा, कार्यालय, प्रवेश द्वार व जरूरत वाले स्थानों पर लगे। शर्त इतनी वर्चुअली रात-दिन चालू रहें और कैमरों का रिकॉर्ड रखने की जवाबदारी तय हो तथा सारे कैमरे ब्लॉक से लेकर प्रदेश और देश के संबंधित विभागों से सीधे जुड़ें जिससे कहीं से भी कोई जिम्मेदार एक्सेस कर सके। इनमें मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री दफ्तर तक शामिल हो। बस देखिए इस औचक निरीक्षण प्रणाली के नतीजे चौंकाने वाले होंगे। कैसे मनमानी पोस्टिंग, कहीं शिक्षकों की जबरदस्त कमीं तो कहीं भरमार का खेला खत्म होता है। मध्यान्ह भोजन, साइकिल, लैपटॉप, पुस्तक, वर्दी, वजीफा आदि में हर महीने करोड़ों खर्च होते हैं वहीं जरा से खर्च पर आल इज वेल एण्ड आल विल बी वेल को अंजाम दिया जा सकता है।
यदि भारत को दोबारा विश्वगुरू बनाने का सपना सच करना है तो डिजिटल क्रान्ति के जरिए अपने लाचार सरकारी स्कूलों के सिस्टम को सुधारने का तकनीकी गुर अपनाना होगा ताकि पानी की तरह बह रहे पैसों का सदुपयोग हो सके और सरकारी शिक्षा में सुधार, बढ़ते बाजारवाद को रोकने की नई क्रान्ति से दूसरे देशों के लिए भी मिशाल बन सके।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।)